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श्रीमद राजचन्द्र
१९. जिनपूजा आदि अपवाद मार्ग है ।
२०. मोहनीयकर्म मनसे जीता जाता है परन्तु वेदनीयकर्म मनसे नहीं जीता जाता; तीर्थंकर आदिको भी उसका वेदन करना पड़ता है, और दूसरोंके समान कठिन भी लगता है । परन्तु उसमें (आत्मधर्ममें) उनके उपयोगकी स्थिरता होनेसे, निर्जरा होती है, और दूसरेको (अज्ञानीको) बंध होता है । क्षुधा, तृषा यह मोहनीय नहीं परन्तु वेदनीय कर्म है ।
२१.
" जो पुमान परधन हरै, सो अपराधी अज्ञ । जे अपनो धन विवहरै, सो धनपति धर्मज्ञ ॥'
श्री. बनारसीदास आगराके दशाश्रीमाली वणिक थे ।
- श्री बनारसीदास
२२. ‘प्रवचनसारोद्धार’ ग्रन्थके तीसरे भाग में जिनकल्पका वर्णन किया है। यह ग्रन्थ श्वेताम्बरीय है । उसमें कहा है कि इस कल्पका साधक निम्नलिखित गुणवाला महात्मा होना चाहिये१. संहनन, २. धीरता, ३: श्रुत, ४. वोर्य और ५. असंगता ।
२३. दिगम्बरदृष्टिमें यह दशा सातवें गुणस्थानकवर्तीकी है । दिगम्बर- दृष्टिके अनुसार स्थविरकल्पी और जिनकल्पी नग्न होते हैं; और श्वेताम्बर - दृष्टि के अनुसार प्रथम अर्थात् स्थविर नग्न नहीं होते । इस कल्पके साधकका श्रुतज्ञान इतना अधिक बलवान होना चाहिये कि वृत्ति श्रुतज्ञानाकार हो जानी चाहिये, विषयाकार वृत्ति नहीं होनी चाहिये । दिगम्बर कहते हैं कि नग्न स्थितिवालेका मोक्षमार्ग है, वाकीका तो उन्मत्त मार्ग है । 'णग्गो विमोक्खमग्गो, सेसाय उम्मग्गया सव्वे ।' तथा 'नागो ए. बादशाहथी आघो' अर्थात् नंगा वादशाहसे भी बढ़कर है, इस कहावतके अनुसार यह स्थिति बादशाहको भी पूज्य है ।
२४. चेतना तीन प्रकारकी है :- १. कर्मफलचेतना - एकेंद्रिय जीव अनुभव करते हैं । २. कर्मचेतना—विकलेंद्रिय तथा पंचेंद्रिय अनुभव करते हैं । ३. ज्ञानचेतना - सिद्धपर्यायवाले अनुभव करते हैं । २५. मुनियोंकी वृत्ति अलौकिक होनी चाहिये, उसके बदले अभी लौकिक देखने में आती है ।
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- १. पर्यायालोचन = एक वस्तुका दूसरी तरहसे विचार करना ।
२. आत्माकी प्रतीतिके लिये संकलनाका दृष्टांतः -- छः इंद्रियोंमें मन अधिष्ठाता है, और बाकी पाँच इन्द्रियाँ उसकी आज्ञानुसार चलनेवाली हैं, और उनकी संकलना करनेवाला भी एक मन ही है । यदि मन न होता तो कोई कार्य नहीं हो सकता । वस्तुतः किसी इन्द्रियका कुछ भी वस नहीं चलता । मनका ही समाधान होता है; वह इस तरह कि कोई चीज आँखसे देखी, उसे लेनेके लिये पैरोंसे चलने लगे, वहाँ जाकर उसे हाथ में लिया और खाया इत्यादि । उन सब क्रियाओंका समाधान मनने किया, फिर भी उन सबका आधार आत्मापर है ।
मोरबी, आषाढ वदी २, शनि, १९५६
३. जिस प्रदेशमें वेदना अधिक हो वह उसका मुख्यतः वेदन करता है और वाकी प्रदेश गौणतासे उसका वेदन करते हैं ।
४. जगतमें अभव्य जीव अनंत हैं। उससे अनंत गुने परमाणु एक समयमें एक जीव ग्रहण करता है और छोड़ता है ।
५. द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावसे बाह्य और अभ्यंतर परिणमन करते हुए परमाणु जिस क्षेत्रमें वेदनारूपसे उदयमें आते हैं, वहाँ इकट्ठे होकर वे वहाँ उस रूपसे परिणमन करते हैं; और वहाँ जिस प्रकार - १. परघन = जड, परसमय । अपनो घन = अपना धन, चेतन, स्वसमय । विवहरै = व्यवहार करे, विभाग करे, विवेक करे ।
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