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व्याख्यानसार-२
७८७. जालोको नहीं छूता, और स्थिर होकर बैठा रहता है, तथा कोई क्रिया नहीं करता, उसी तरह यहाँ आत्माके प्रदेश अक्रिय रहते हैं। जहाँ प्रदेशकी अचलता है वहाँ अक्रियता मानी जाती है। . .:.: ..
६. 'चलई सो बंधे', योगका चलायमान होना बंध है; योगका स्थिर होना अबंध है।'' :::" ७. जव अवंध होता है तब मुक्त हुआ कहा जाता है।' .. . .. ८. उत्सर्ग अर्थात् ऐसे होना चाहिये अथवा सामान्य ।। __.. अपवाद अर्थात् ऐसा होना चाहिये परन्तु वैसे न हो सके तो ऐसे । अपवादके लिये गली शब्दका. प्रयोग करना बहुत ही हलका है । इसलिये उसका प्रयोग न करें। . . . . . . . ..
९. उत्सर्गमार्ग अर्थात् यथाख्यातचारित्र, जो निरतिचार है । उत्सर्गमें तीन गुप्ति समाती है; अप-:. वादमें पाँच समिति'समांती है। उत्सर्ग अक्रिय है। अपवाद सक्रिय है। उत्सर्गमार्ग उत्तम है; और उससे निकृष्ट अपवाद है | चौदहवाँ गुणस्थानक उत्सर्ग है, उससे नीचेके गुणस्थानक एक दूसरेकी अपेक्षासे अपवाद हैं। . . . . . . .. . .. ... ... ..
१०. मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगसे एकके बाद एक अनुक्रमसे बंध पड़ता है।
११. मिथ्यात्व अर्थात् यथार्थ समझमें न आना। मिथ्यात्वके कारण विरति नहीं होती, विरतिके अभावसे कषाय होता है, कषायसे योगकी चलायमानता होती है, योगको चलायमानता 'आस्रव' है, और उससे उलटा 'संवर' है।
.. १२. दर्शनमें भूल होनेसे ज्ञानमें भूल होती है। जिस प्रकारके रससे ज्ञानमें भूल होती है उसी प्रकारसे आत्माका वीर्य स्फुरित होता है, और तदनुसार वह परमाणु ग्रहण करता है और वैसा ही बंध पड़ता है; और तदनुसार विपाक उदयमें आता है। दो उँगलियोंको परस्पर फंसानेसे अंकुड़ी पड़ती है, उस अंकुड़ीरूप उदय है और उनको मरोड़नेरूप भूल है; उस भूलसे दुःख होता है अर्थात् वंध बंधता है। परंतु मरोड़नेरूप भूल दूर हो जानेसे अंकुड़ी सहजमें ही छूट जाती है। उसी तरह दर्शनकी भूल दूर हो जानेसे कर्मोदय सहजमें ही विपाक देकर झड़ जाता है और नया बंध नहीं होता। :
.. १३. दर्शनमें भूल होती है, उसका उदाहरण-जैसे लड़का बापके ज्ञानमें और दूसरेके ज्ञानमें देहकी अपेक्षासे एक ही है, अन्य नहीं है, परन्तु बाप उसे अपना लड़का करके मानता है वही भूल है। वही दर्शनमें भूल है और इससे यद्यपि ज्ञानमें भेद नहीं है फिर भी वह भूल करता है, और उससे उपर्युक्तके अनुसार बंध होता है।
१४. यदि उदयमें आनेसे पहले रसमें मंदता कर दी जाये तो आत्मप्रदेशसे कर्म झड़कर निर्जरा हो जाती है, अथवा मंद रससे कर्म उदयमें आते हैं।
१५. ज्ञानी नयी भूल नहीं करते, इसलिये वे अबंध हो सकते हैं।
१६. ज्ञानियोंने माना है कि यह देह अपनी नहीं है, यह रहनेवाली भी नहीं है, कभी न कभी उसका वियोग होनेवाला ही है। इस भेदविज्ञानके कारण ज्ञानी नगारेकी आवाजकी तरह उक्त तथ्यको सदा सुनते रहते हैं और अज्ञानीके कान बहरे होते हैं इसलिये वह उसे नहीं सुनता।
१७. ज्ञानी देहको नश्वर समझकर, उसका वियोग होनेपर खेद नहीं करते । परन्तु जैसे किसीसे कोई चीज ली हो और उसे वापिस देनी पड़ती है उसी तरह ज्ञानी देहको उल्लासपूर्वक वापस दे देते हैं। अर्थात् देह-परिणामी नहीं होते।
१८. देह और आत्माका भेद करना 'भेदज्ञान' है । ज्ञानीका वह जाप है । उस जापसे वे देह और