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श्रीमद राजचन्द्र स्मृतिमें न रहे, इससे वे नहीं थे ऐसा नहीं कहा जा सकता। जिस तरह आम आदि वृक्षोंकी कलम की जाती है, उसमें सानुकूलता हो तो होती है, उसी तरह यदि पूर्वपर्यायकी स्मृति करनेके लिये क्षयोपशमादि सानुकूलता (योग्यता) हो तो 'जातिस्मरणज्ञान' होता है। पूर्वसंज्ञा कायम होनी चाहिये। असंज्ञीका भव आनेसे 'जातिस्मरणज्ञान' नहीं होता।
कदाचित् स्मृतिका काल थोड़ा कहें तो सौ वर्षका होकर मर जानेवाले व्यक्तिने पाँच वर्षकी उमरमें जो देखा अथवा अनुभव किया हो वह पंचानवें वर्षमें स्मृतिमें नहीं रहना चाहिये, परन्तु यदि पूर्वसंज्ञा कायम हो तो स्मृतिमें रहता है। ... ... ....
३. आत्मा है । आत्मा नित्य है। उसके प्रमाण :
(१) बालकको स्तनपान करते हुए चुक-चुक करना क्या कोई सिखाता है ? वह तो पूर्वाभ्यास है । (२) सर्प और मोरका, हाथी और सिंहका, चूहे और बिल्लीका स्वाभाविक वैर है। उसे कोई नहीं सिखाता । पूर्वभवके वैरकी स्वाभाविक संज्ञा है, पूर्वज्ञान है।
४. निःसंगता वनवासीका विषय है ऐसा ज्ञानियोंने कहा है, वह सत्य है। जिसमें दो व्यवहारसांसारिक और असांसारिक होते हैं, उससे निःसंगता नहीं होती।
५. संसार छोड़े बिना अप्रमत्तगुणस्थानक नहीं है । अप्रमत्त गुणस्थानककी स्थिति अंतर्मुहूर्तकी है।
६. 'हम समझ गये हैं', 'हम शांत हैं', ऐसा जो कहते हैं वे तो ठगे गये हैं। '७. संसारमें रहकर सातवें गुणस्थानकसे आगे नहीं बढ़ सकते, इससे संसारीको निराश नहीं होना है, परन्तु उसे ध्यानमें रखना है। ............. ..
८. पूर्वकालमें स्मृतिमें आयी हुई वस्तुको फिर शांतिसे याद करे तो यथास्थित याद आ जाती है। अपना दृष्टांत देते हुए बताया कि उन्हें ईडर और वसोके शांत स्थान याद करनेसे तद्रूप याद आ जाते हैं । तथा खंभातके पास वडवा गाँवमें ठहरे थे, वहाँ बावडीके पीछे थोड़े ऊँचे टीलेके पास बाड़के आगे जाकर रास्ता, फिर शांत और शीतल अवकाशका स्थान था:। उन स्थानोंमें स्वयं शांतः समाधिस्थ दशामें बैठे थे, वह स्थिति आज उन्हें पाँच सौ बार स्मृतिमें आयी है। दूसरे भी. उस समय वहाँ थे। परन्तु सभीको उस प्रकारसे याद नहीं आता । क्योंकि वह क्षयोपशमके अधीन है । स्थल भी निमित्त कारण है। .. . . ९. *ग्रंथिके दो भेद हैं :-एक द्रव्य, बाह्य ग्रंथि (चतुष्पद, द्विपद, अपद इत्यादि); दूसरी भावअभ्यंतर ग्रंथिः (आठ कर्म इत्यादि) । सम्यक् प्रकारसे जो दोनों ग्रंथियोंसे निवृत्त हो वह निग्रंथ' है। - १० मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति आदि भाव जिसे छोड़ने ही नहीं है उसे वस्त्रका त्याग हो, तो भी वह पारलौकिक कल्याण क्या कर सकता है ?
११. सक्रिय जीवको अवंधका अनुष्ठान हो ऐसा कभी नहीं होता । क्रिया होनेपर भी अवंध गुणस्थानक नहीं होता।
..... . १२. राग आदि दोषोंका क्षय हो जानेसे उनके सहायक कारणोंका क्षय होता है। जब तक संपूर्णरूपसे उनका क्षय नहीं होता तब तक मुमुक्षुजीव संतोप मानकर नहीं बैठते ।
... १३. राग आदि दोष और उनके सहायक कारणोंके अभावमें बंध नहीं होता । राग आदिके प्रयोगसे कर्म होता है । उनके अभाव में सब जगह कर्मका अभाव समझें। . * धर्मसंग्रहणी ग्रंथ गाथा १०७०, १०७१, १०७४, १०७५ ।