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श्रीमद् राजचन्द्र
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गुरुके पास रोज जाकर एकेंद्रिय आदि जीवोके संबंधमे अनेक प्रकारकी शकाएँ तथा कल्पनाएँ करके पूछा करता है, रोज जाता है और वहीकी वही बात पूछता है । परन्तु उसने क्या सोच रखा है. ?.. एकेद्रियमे जाना सोचा है क्या ? परन्तु किसी दिन यह नही पूछता, कि एकेंद्रियसे लेकर पचेंद्रियको जानेका परमार्थ क्या है ? एकेंद्रिय आदि जीवो सबधी कल्पनाओसे कुछ मिथ्यात्व ग्रथिका छेदन नही होता । एकेंद्रिय आदि जीवोका स्वरूप जाननेका कोई फल नही है । वास्तवमे तो समकित प्राप्त करना, है । इसलिये गुरुक़े पास जाकर निकम्मे प्रश्न करनेकी अपेक्षा गुरुसे कहना कि एकेद्रिय आदिको बात आज जान ली है, अब उस बातको आप कल न करें, परन्तु समकितकी व्यवस्था करे। ऐसा कहे तो इसका किसी दिन अन्त आवे । परन्तु रोज एकेंद्रिय आदिकी माथापच्ची करें तो इसका कल्याण कब हो ?, समुद्र खारा है | एकदम तो उसका खारापन दूर नही होता । उसके लिये इस प्रकार उपाय हैकि समुद्रमेसे एक एक प्रवाह लेना, और उस प्रवाहमे, जिससे उस पानीका खारापन दूर हो और मिठास - आ जाये ऐसा क्षार डालना । परन्तु उस पानी के सुखानेके दो प्रकार है- एक तो सूर्यका ताप और दूसराजमीन, इसलिये पहले जमीन तैयार करना और फिर नालियो द्वारा पानी ले जाना और फिर क्षार डालना कि जिससे खारापन मिट जायेगा । इसी तरह मिथ्यात्वरूपी समुद्र है, उसमे कदाग्रहरूपी खारापन है, इसलिये कुल धर्मरूपी प्रवाहको योग्यतारूप जमीनमे ले जाकर सद्बोधरूपी क्षार डालना जिससे सत्पुरुषरूपी तापसे खारापन मिट जायेगा ।
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" दुर्बळ देह ने मास उपवासी, जो छे मायारग रे । तोपण गर्भ अनता लेशे, बोले बीजु अंग रे ॥'
जितनी भ्राति अधिक उतना मिथ्यात्व अधिक ।
सबसे बड़ा रोग मिथ्यात्व |
जब जब तपश्चर्या करना तब तब उसे स्वच्छदसे न करना अहकारसे न करना, लोगोंके लिये न करना। जीवको जो कुछ करना है उसे स्वच्छदसे न करे । 'मै सयाना हूँ', ऐसा मान रखना वह क्सि भवके लिये ? ' मै सयाना नही हूँ' यो जिसने संमझा वह मोक्षमे गया है। मुख्यसे मुख्य विघ्न स्वच्छन्द् है । जिसके दुराग्रहका छेदन हो गया है वह लोगोको भी प्रिय होता है, दुराग्रह छोड दिया हो तो दूसरोको भी प्रिय होता है; इसलिये दुराग्रह छोडनेसे सब फल मिलने सभव है ।
गौतमस्वामीने महावीरस्वामीसे वेदके प्रश्न पूछे, उनका, जिन्होने सभी दोषोका क्षय किया है ऐसे उन महावीरस्वामीने वेदके दृष्टात देकर समाधान सिद्ध कर दिया ।
दूसरेको ऊँचे गुणपर चढाना, परन्तु किसीकी निंदा नही करना । किसीको स्वच्छदसे कुछ नही कहना । कहने योग्य हो तो अहकाररहित भावसे कहना । परमार्थदृष्टिसे रागद्वेष कम हुए हो तो फलीभूत होते है । व्यवहारसे तो भोले जीवोके भो रागद्वेष कम हुए होते है, परन्तु परमार्थसे रागद्वेष मद हो जायें तो कल्याणका हेतु है ।
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महान पुरुषोकी दृष्टिसे देखनेसे सभी दर्शन समान हैं । जेनमे बीस लाख जीव मतमतातरमे पडे हैं । ज्ञानोको दृष्टिसे भेदाभेद नही होता ।
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जिस जीवको अनन्तानुबन्धीका उदय है उसको सच्चे पुरुषकी बात सुनना भी नही भाता । मिथ्यात्वकी ग्रन्थि है उसकी सात प्रकृतियाँ हैं। मान आये तो सातो आती है, उनमे अनन्तानुबन्धी चार प्रकृतियाँ चक्रवर्तीके समान हैं। वे किसी तरह ग्रन्थिमेसे निकलने नही देती । मिथ्यात्व
१ नावार्थ – दुर्वल देह है और एक-एक मासका उपवास करता है, परन्तु यदि अतरमे माया है तो भी, जीव अनन्त गर्भ धारण करेगा, ऐसा दूसरे अगमें कहा है ।