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व्याख्यानसार-१
७५१ १७. लौकिक मार्गसे विरुद्ध जो लोकोत्तर मार्ग है उसका पालन करनेसे उसका फल उससे विरुद्ध अर्थात् लौकिक नहीं होता। जैसा कृत्य वैसा फल । ...
१८. इस संसारमें जीवोंकी संख्या अनंत कोटि है। व्यवहार आदि प्रसंगमें अनंत जीव क्रोध आदिसे बर्ताव करते हैं । चक्रवर्ती राजा आदि क्रोध आदि भावसे संग्राम करते हैं, और लाखों मनुष्योंका घात करते हैं, तो भी उनसे किसी किसीका उसी कालमें मोक्ष हुआ है । ...
...... . १९. क्रोध, मान, माया और लोभकी चौकड़ी 'कषाय'के नामसे पहचानी जाती है। यह कषाय __ अत्यन्त क्रोधादिवाला है। यदि वह अनंत संसारका हेतु होकर अनंतानुबन्धी कषाय होता हो तो फिर
चक्रवर्ती आदिको अनंत. संसारकी वृद्धि होनी चाहिये, और इस हिंसाबसे अनंत संसार बीतनेसे पहले उनका मोक्ष कैसे हो सकता है ? यह बात विचारणीय हैं।
... २०. जिस क्रोध आदिसे अनंत संसारको वृद्धि हो वह अनंतानुबन्धी कषाय है, यह भी निःशंक है। इस हिसाबसे उपयुक्त क्रोध आदि अन्तानुबंन्धी नहीं हो सकते । तो फिर अनन्तानुबन्धी चौकड़ी दूसरी तरहसे होना संभव है। .. :..:.:२१: सम्यक् ज्ञान; दर्शन और चारित्र इन तीनोंकी एकता 'मोक्ष' है। वह सम्यक् ज्ञान, दर्शन
और चारित्र अर्थात् वीतराग ज्ञान, दर्शन और चारित्र है। उसीसे अनंत संसारसे मुक्ति प्राप्त होती है। यह वीतरागज्ञान कर्मके अबन्धका हेतु है । वीतरागके मार्गमें चलना अथवा उनकी आज्ञाके अनुसार चलना भी अबंधक है ।, उनके प्रति जो क्रोध आदि कषाय हों उनसे विमुक्त होना, यही अनंत संसारसे अत्यन्तरूपसे मुक्त होना है; अर्थात् मोक्ष है। जिससे मोक्षसे विपरीत ऐसे अनंत संसारकी वृद्धि होती है उसे अनंतानुबंधी कहा जाता है और है भी इसी तरह । वोतरागके मार्गमें और उनको आज्ञानुसार चलनेवालोंका कल्याण होता है । ऐसा जो बहुतसे जीवोंके लिये कल्याणकारी मार्ग है उसके प्रति क्रोध आदि भाव (जो महा विपरीत करनेवाले हैं) ही अनंतानुवंधी कषाय है।
२२. यद्यपि क्रोध आदि भाव लौकिक व्यवहार में भी निष्फल नहीं होते; परन्तु वीतराग द्वारा प्ररूपित वीतरागज्ञान अथवा मोक्षधर्म अथवा तो सद्धर्म उसका खंडन करना या उसके प्रति तीव्र, मंद आदि जैसे भावसे क्रोध आदि भाव होते हों वैसे भावसे अनंतानुबंधी कषायसे बंध होकर अनंतः संसारको वृद्धि होती है।
२३. किसी भी कालमें अनुभवका अभाव नहीं है । बुद्धिवलसे निश्चित की हुई जो अप्रत्यक्ष बात है उसका क्वचित् अभाव भी हो सकता है। ' २४. केवलज्ञान अर्थात् जिससे कुछ भी जानना शेष नहीं रहता वह, अथवा जो आत्मप्रदेशका स्वभाव-भाव है वह ? :
__(अ) आत्मासे उत्पन्न किया हुआ विभाव-भाव, और उसमें होनेवाले जड पदार्थके संयोगल्प आवरणसे जो कुछ देखना, जानना आदि होता है वह इंद्रियको सहायतासे हो सकता है; परन्तु उस संबंधी यह विवेचन नहीं है। यह विवेचन 'केवलज्ञान' संबंधी है।
(आ) विभाव-भावसे हुआ जो पुद्गलास्तिकायका संबंध है वह आत्मासे पर है। उसका तथा जितना पुद्गलका संयोग हआ उसका यथान्यायसे ज्ञान अर्थात् अनुभव होता है वह अनुभवगम्यमें समाता है, और उसके कारण लोकसमस्तके पुद्गलोका भी ऐसा ही निर्णय होता है उसका समावेश वद्धिवलमें