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व्याख्यानसार--१
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अथवा विरति प्राप्त करता है तब वह संबंध नहीं रहता । सिद्धावस्थामें एक आत्माके सिवाय दूसरा कुछ भी नहीं है, और नामकर्म तो एक प्रकारका कर्म है, तो फिर वहाँ यश-अपयश आदिका संबंध किस तरह घटित हो सकता है ? अविरतिपनसे जो कुछ पाप क्रिया होती है वह पाप चला आता है ।
९८. 'विरति' अर्थात् 'छूटना', अथवा रतिसे विरुद्ध, अर्थात् रति न होना । अविरतिमें तीन शब्द है - अ + वि + रति = अ = नहीं + वि = विरुद्ध + रति = प्रीति, अर्थात् जो प्रोतिसे विरुद्ध नहीं है वह 'अविरत' है । वह अविरति बारह प्रकारकी है
९९. पाँच इन्द्रिय, छठा मन तथा पाँच स्थावर जीव, और एक त्रस जीव ये सब मिलाकर उसके कुल बारह प्रकार हैं ।
१००. ऐसा सिद्धांत है कि कृतिके बिना जीवको पाप नहीं लगता । उस कृतिकी जब तक विरति नहीं की तब तक अविरतिपनेका पाप लगता है । समस्त चौदह राजूलोक मेंसे उसकी पाप-क्रिया चली आती है ।
१०१. कोई जीव किसी पदार्थकी योजना कर मर जाये, और उस पदार्थ की योजना इस प्रकारकों हो कि वह योजित पदार्थ जब तक रहे, तब तक उससे पापक्रिया हुआ करे; तो तब तक उस जीवको अविरतिपनेकी पापक्रिया चलो आती है । यद्यपि जीवने दूसरे पर्यायको धारण किया होनेसे पहलेके पर्याय समय जिस जिस पदार्थ की योजना की है उसका उसे पता नहीं है तो भी, तथा वर्तमान पर्यायके समय वह जीव उस योजित पदार्थकी क्रिया नहीं करता तो भी, जब तक उसका मोहभाव विरतिपनेको प्राप्त नहीं हुआ तब तक, अव्यक्तरूपसे उसकी क्रिया चली आती है ।
१०२. वर्तमान पर्यायके समय उसके अनजानपनेका लाभ उसे नहीं मिल सकता । उस जीवको समझना चाहिये था कि इस पदार्थसे होनेवाला प्रयोग जब तक कायम रहेगा तब तक उसकी पापक्रिया चालू रहेगी । उस योजित पदार्थसे अव्यक्तरूपसे भी होनेवाली (लगनेवाली) क्रियासे मुक्त होना हो तो मोहभावको छोड़ना चाहिये । मोह छोड़नेसे अर्थात् विरतिपन करनेसे पापक्रिया बंध होती है । उस विरतिपनेको उसी पर्याय में अपनाया जाये, अर्थात् योजित पदार्थके ही भवमें अपनाया जाये तो वह पापक्रिया, जबसे विरतिपना ग्रहण करे तवसे आनी बंद होती है । यहाँ जो पापक्रिया लगती है वह चारित्रमोहनोयके कारण आती है । वह मोहभावका क्षय हो जानेसे आनी बंद होती है।
१०३. क्रिया दो प्रकारसे होती है - एक व्यक्त अर्थात् प्रगटरूपसे और दूसरी अव्यक्त अर्थात् अप्रगटरूपसे । यद्यपि अव्यक्तरूपसे होनेवाली क्रिया सबसे जानी नहीं जा सकती, इसलिये नहीं होती ऐसी बात तो नहीं है ।
१०४. पानीमें लहरे अथवा हिलोरें स्पष्टता से मालूम होती हैं; परन्तु उस पानीमें गंधक या कस्तूरी डाल दी हो, और वह पानी शांत स्थितिमें हो तो भी उसमें गंधक या कस्तूरीकी जो क्रिया है वह यद्यपि दोखती नहीं है, तथापि उसमें अव्यक्तरूपसे रही हुई है । इस तरह अव्यक्तरूपसे होनेवाली क्रियामें श्रद्धा न की जाये और मात्र व्यक्तरूप क्रियामें श्रद्धा की जाये, तो एक ज्ञानी जिसमें अविरतिरूप क्रिया नहीं होती वह भाव और दूसरा निद्राधीन मनुष्य जो व्यक्तरूपसे कुछ भी क्रिया नहीं करता वह भाव, दोनों एकसे लगते हैं, परन्तु वस्तुतः ऐसी बात नहीं है। निद्राधीन मनुष्यको अव्यक्तरूपसे क्रिया लगती है । इसी तरह जो मनुष्य (जीव ) चारित्रमोहनीय नामकी निद्रामें सोया हुआ है उसे अव्यक्त क्रिया नहीं लगती ऐसा नहीं है। यदि मोहभावका क्षय हो जाये तो ही अविरतिरूप चारित्रमोहनीय क्रिया बंद होती है, उससे पहले बंद नहीं होती ।