________________
९५९
व्याख्यानसार-२
... . .... मोरबी, आषाढ़ सुदी ४, १९५६ १. ज्ञानके साथ वैराग्य और वैराग्यके साथ ज्ञान होता है । वे अकेले नहीं होते। . .. २. वैराग्यके साथ शृङ्गार नहीं होता, और शृंगारके साथ वैराग्य नहीं होता।
___३. वीतराग वचनके असरसे जिसे इन्द्रियसुख नीरस न लगे तो उसने ज्ञानीके वचन सुने ही नहीं, ऐसा समझें। . . ४. ज्ञानीके वचन विषयका वमन, विरेचन करानेवाले हैं।
:: : ___५. छद्मस्थ अर्थात् आवरणयुक्त ।
६. शैलेशीकरण = शैल = पर्वत + ईश = महान, अर्थात् पर्वतोंमें महान मेरुके समान अकंपगुणवाला। '... ७. अकंपगुणवाला = मन, वचन और कायांके योगकी स्थिरतावाला। . ८. मोक्षमें आत्माके अनुभवका यदि नाश होता हो तो वह मोक्ष किस कामका ? ....
९. आत्माका ऊर्ध्वस्वभाव है, तदनुसार आत्मा पहले ऊँचे जाता है और कदाचित् सिद्ध शिलासे टकराये; परन्तु कर्मरूपी बोझ होनेसे नीचे आता है। जैसे कि डूबा हुआ मनुष्य उछालसे एक बार ऊपर आ जाता है वैसे।
१०. भरतेश्वरकी कथा । (भरत चेत, काल झटका दे रहा है।) ११. सगर चक्रवर्तीको कथा । ( ६०००० पुत्रोंकी मृत्युके श्रवणसे वैराग्य । ) १२. नमिराजर्षिको कथा । ( मिथिला जलती हुई दिखायी इत्यादि।)
२ मोरबी, आषाढ़ सुदी ५, सोम, १९५६ १. जैन आत्माका स्वरूप है। उस स्वरूप (धर्म) के प्रवर्तक भी मनुष्य थे। जैसे कि वर्तमान अवसर्पिणीकालमें ऋषभ आदि पुरुष उस धर्मके प्रवर्तक थे। बुद्ध आदि पुरुषोंको भी उस उस धर्मके प्रवर्तक जानें । इससे कुछ अनादि आत्मधर्मका विचार न था ऐसा नहीं था।
*. वि० सं० १९५६ के आषाढ़ और श्रावणमें श्रीमद्जी मोरवीमें ठहरे थे। उस अरसेमें उन्होंने समयसमयपर जो व्याख्यान दिये थे और मुमुक्षुओंके प्रश्नोंका समाधान किया था, उस सवका सार एक मुमुक्ष श्रोताने संक्षेपमें लिख लिया था। वही संक्षिप्त सार यहाँ दिया गया है ।