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व्याख्यानसार-१
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११४. काल मूल द्रव्य नहीं है, औपचारिक द्रव्य है; और वह जीव तथा अजीव (अजीवमें-मुख्यतः पुद्गलास्तिकायमें-विशेषरूपसे समझमें आता है) मेंसे उत्पन्न हुआ है; अथवा जीवाजोवकी पर्यायावस्था काल है। प्रत्येक द्रव्यके अनंत धर्म हैं। उनमें ऊर्ध्वप्रचय और तिर्यक्प्रचय ऐसे दो धर्म हैं; और कालमें तिर्यप्रचय धर्म नहीं है, मात्र ऊर्ध्वप्रचय धर्म है।
११५. ऊर्ध्वप्रचयसे पदार्थमें जिस धर्मका उद्भव होता है उस धर्मका तिर्यक्प्रचयसे फिर उसमें समावेश हो जाता है । कालके समयका तिर्यक्प्रचय नहीं है, इसलिये जो समय चला गया वह फिर पीछे नहीं आता।
११६. दिगम्बर मतके अनुसार लोकमें 'कालद्रव्य' के असंख्यात अणु हैं।
११७. प्रत्येक द्रव्यके अनंत धर्म हैं। उनमें कितने ही व्यक्त हैं, कितने ही अव्यक्त हैं, कितने ही मुख्य हैं, कितने ही सामान्य हैं, कितने ही विशेष हैं।
११८. असंख्यातको असंख्यातसे गुना करनेसे भी असंख्यात होता है, अर्थात् असंख्यातके असंख्यात भेद हैं। ....... ...... ... . .
११९. एक अंगुलके असंख्यात भाग-अंश-प्रदेश, वे एक अंगुलमें असंख्यात हैं । "लोकके भी असंख्यात प्रदेश हैं। चाहे जिस दिशाकी समश्रेणिसे असंख्यात होते हैं। इस तरह एकके.बाद एक, दूसरी तीसरी समश्रेणिका योग करनेसे जो योगफल आता है वह एक गुना, दो गुना, तीन गुना, चार गुना होता है परन्तु असंख्यात गुना नहीं होता। परन्तु एक समणि जो असंख्यात प्रदेशवाली है उस समश्रेणिकी दिशावाली सभी समश्रेणियाँ जो असंख्यात गुनी है, उस प्रत्येकको असंख्यातसे गुना करनेसे, इसी तरह दूसरी दिशाको समश्रेणिका भी गुणा करनेसे, और इसी तरह तोसरो दिशाको समश्रेणिका भी गुना करनेसे असंख्यात होते हैं । इस असंख्यातके.भंगोंको जहाँ तक एक दूसरेका गुनाकार किया जा सकता है वहाँ तक असंख्यात होते हैं और जब उस गुणाकारसे कोई गुनाकार करना बाकी नहीं रहता तब असंख्यात पूरा होनेपर उसमें एक मिला देनेसे जघन्यसे जघन्य अनंत होता है।
१२०. जो नय है वह प्रमाणका एक अंश है । जिस नयसे जो धर्म कहा गया है, वहाँ उतना प्रमाण है। इस नयसे जो धर्म कहा गया है, उसके सिवाय वस्तुमें दूसरे जो धर्म हैं उनका निषेध नहीं किया गया है । एक ही समयमें वाणीसे समस्त धर्म नहीं कहे जा सकते। तथा जो जो प्रसंग होता है उस उस प्रसंगपर वहाँ मुख्यतः वही धर्म कहा जाता है। वहाँ वहाँ उस उस नयसे प्रमाण है।
१२१. नयके स्वरूपसे दूर जाकर जो कुछ कहा जाता है वह नय नहीं है, परन्तु नयाभास है, और जहाँ नयाभास है वहाँ मिथ्यात्व सिद्ध होता है।
१२२. नय सात माने हैं। उनके उपनय सात सौ हैं, और विशेष स्वरूपसे अनंत हैं, अर्थात् जितने वचन हैं उतने नय हैं।
१२३. एकान्तिकता ग्रहण करनेका स्वच्छंद जीवको विशेषरूपसे होता है, और एकान्तिकता ग्रहण करनेसे नास्तिकता होती है। उसे न होने देनेके लिये यह नयका स्वरूप कहा गया है। जिसे समझनेसे जीव एकान्तिकता ग्रहण करनेसे रुककर मध्यस्थ रहता है, और मध्यस्थ रहनेसे नास्तिकता अवकाश नहीं पा सकती।
१२४. जो नय कहनेमें आता है वह नय स्वयं कोई वस्तु नहीं है, परन्तु वस्तुका स्वरूप समझने और उसकी सुप्रतीति होनेके लिये प्रमाणका एक अंश हे ।