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व्याख्यानसार-१
७६५ - १३४. सिद्धांत प्रत्यक्ष है, ज्ञानीका अनुभवसिद्ध विषय है। उनमें अनुमान काम नहीं आता । अनुमान तो तर्कका विषय है, और तर्क आगे बढ़नेपर कितनी ही बार झूठा भी हो जाता है; परन्तु प्रत्यक्ष जो अनुभवसिद्ध है उसमें कुछ भी असत्यता नहीं रहती। .. .
१३५. जिसे गुणन या जोड़का ज्ञान हुआ है वह यह कहता है कि नौ नवाँ इक्यासी, परन्तु जिसे जोड़ अथवा गुणनका ज्ञान नहीं हुआ, अर्थात् क्षयोपशम नहीं हुआ वह अनुमानसे या तकसे यों कहे कि 'अट्टानवे होते हों तो क्यों न कहा जा सके ?'. तो इसमें कुछ आश्चर्य करने जैसी बात नहीं है, क्योंकि उसे ज्ञान न होनेसे वैसा कहता है यह स्वाभाविक है। परन्तु यदि उसे गुणनको रीतिको अलग अलग करके, एकसे नौ तक अंक बताकर नौ बार गिनाया जाये तो इक्यासी होनेसे अनुभवगम्य हो जानेसे उसे सिद्ध होते हैं। कदाचित् उसके मंद क्षयोपशमसे, गुणन अथवा जोड़ करनेसे इक्यासी समझमें न आयें. तो भी इक्यासी होते हैं इसमें फर्क नहीं है। इसी तरह आवरणके कारण सिद्धांत समझमें न आयें तो भी वे असिद्धांत नहीं हो जाते इस बातकी अवश्य प्रतीति रखें। फिर भी प्रतीति करनेकी ज़रूरत हो तो उसमें बताये अनुसार करनेसे. प्रतीति हो जानेसे प्रत्यक्ष अनुभवसिद्ध होता है। : १३६. जब तक अनुभवसिद्ध न हो तब तक सुप्रतीति रखनेकी जरूरत है, और सुप्रतीतिसे क्रमशः अनुभवसिद्ध होता है।
..१३७. सिद्धांतके दृष्टांत-(१) 'रागद्वेषसे बंध होता है।' (२) 'बंधका क्षय होनेसे मुक्ति होती है।' इस सिद्धांतंकी प्रतीति करनी हो तो रागद्वेष छोड़ें। यदि सर्व प्रकारसे रागद्वेष छूट जायें तो आत्माका सर्व प्रकारसे मोक्ष हो जाता है। आत्मा बंधनके कारण मुक्त नहीं हो सकता। बंधन छूटा कि मुक्त है। बंधन होनेके कारण रागद्वेष हैं। जहाँ रागद्वेष सर्वथा छूटे कि बंधसे छूट ही गया है। इसमें कोई प्रश्न या शंका नहीं रहती। .. . १३८. जिस समय रागद्वेषका सर्वथा क्षय होता है, उसे दूसरे ही समयमें 'केवलज्ञान' होता है ।
१३९. जीवं पहले गुणस्थानकमेंसे आगे नहीं जाता.। आगे जानेका विचार नहीं करता । पहलेसे आगे किस तरह बढ़ा जा सकता है ? उसके क्या उपाय हैं ? किस तरह पुरुषार्थ करे ? उसका विचार भी नहीं करता; और जब बातें करने बैठता है तब ऐसी करता है. कि इस क्षेत्रमें इस कालमें तेरहवाँ गुणस्थानक प्राप्त नहीं होता। ऐसी ऐसी गहन बातें, जो अपनी शक्तिके वाहरकी है, उन्हें वह कैसे समझ सकता है ? अर्थात् अपनेको जितना क्षयोपशम हो उसके अतिरिक्तकी वातें करने बैठे तो वे समझी ही नहीं जा सकती...., . . ... ... ...
. १४०. ग्रन्थि पहले गुणस्थानकमें है, उसका भेदन करके आगे बढकर संसारो जीव चौथे गुणस्थानक तक नहीं पहुंचे। कोई जीव निर्जरा करनेसे ऊँचे भावोंमें आनेसे, पहले से निकलनेका विचार करके, ग्रन्थिभेदके समीप आता है, परन्तु वहाँ उसपर ग्रन्थिका इतना अधिक जोर होता है कि ग्रन्थिभेद करने में शिथिल होकर जीव रुक, जाता है, और इस प्रकार मंद होकर वापस लौटता है। इस तरह जीव अनंत . बार ग्रंथिभेदके समीप आकर वापस लौट गया है। कोई जीव प्रवल पुरुषार्थ करके, निमित्त कारणका
योग पाकर पूर्ण शक्ति लगाकर ग्रंथिभेद करके आगे बढ़ जाता है, और जब ग्रन्थिभेद करके आगे बढा कि चौथेमें आ जाता है, और चौथेमें आया कि जल्दी या देरसे मोक्ष होगा, ऐसी उस जीवको मुहर लग जाती है।
१४१. इस गणस्थानकका नाम 'अविरतिसम्यग्दृष्टि' है, जहा विरतिपनेके बिना सम्यक ज्ञानदर्शन है।