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श्रीमद् राजचन्द्र ४. बुद्धिबलसे निश्चित किया हुआ सिद्धांत उससे विशेष बुद्धिवल अथवा तकसे कदाचित् बदल सकता है; परन्तु जो वस्तु अनुभवगम्य (अनुभवसिद्ध) हुई है वह त्रिकालमें बदल नहीं सकती।
५. वर्तमान समयमें जैनदर्शनमें अविरतिसम्यग्दृष्टि नामक चौथे गुणस्थानसे अप्रमत्त नामक सातवें . गुणस्थान तक आत्मानुभव स्पष्ट स्वीकृत है।
६. सातवेंसे सयोगीकेवली नामक तेरहवे गुणस्थान तकका काल अंतर्महर्तका है। तेरहवेंका काल क्वचित् लंबा भी होता है । वहाँ तक आत्मानुभव प्रतीतिरूप है।
७. इस कालमें मोक्ष नहीं है ऐसा मानकर जीव मोक्षहेतुभूत क्रिया नहीं कर सकता; और वैसी मान्यताकै कारण जीवकी प्रवृत्ति दूसरे ही प्रकारकी होती है।
८. पिंजरेमें बन्द किया हुआ सिंह पिंजरेसे प्रत्यक्ष भिन्न है, तो भी बाहर निकलनेके सामथ्यसे रहित है। इसी तरह अल्प आयुके कारण अथवा संघयण आदि अन्य साधनोंके अभावसे आत्मारूपी सिंह कर्मरूपी पिंजरेसे बाहर नहीं आ सकता ऐसा माना जाये तो यह मानना सकारण है।
९. इस असार संसारमें मुख्य चार गतियाँ हैं, जो कर्मबन्धसे प्राप्त होती है। बंधके बिना वे गतियाँ प्राप्त नहीं होती। बंधरहित मोक्षस्थान बंधसे होनेवाली चारगतिरूप संसारमें नहीं है। सम्यक्त्व अथवा चारित्रसे बंध नहीं होता यह तो निश्चित है; तो फिर चाहे जिस कालमें सम्यक्त्व अथवा चारित्र प्राप्त करे वहाँ उस समय बन्ध नहीं है; और जहाँ बन्ध नहीं है वहाँ संसार भी नहीं है। ... १०. सम्यक्त्व और चारित्रमें आत्माकी शुद्ध परिणति है, तथापि उसके साथ मन, वचन और शरीरके शुभ योगकी प्रवृत्ति होती है। उस शुभ योगसे शुभ बन्ध होता है। उस बन्धके कारण देव आदि गतिरूप संसार करना पड़ता है। परन्तु उससे विपरीत जो सम्यक्त्व और चारित्र हैं वे जितने अंशमें प्राप्त होते हैं उतने अंशमें मोक्ष प्रगट होता है; उसका फल देव आदि गतिका प्राप्त होना नहीं है। देव आदि गति जो प्राप्त हुई वह उपर्युक्त मन, वचन और शरीरके शुभ योंगसे हुई है; और जो बन्धरहित सम्यक्त्व तथा चारित्र प्रगट हुए हैं वे स्थिर रहकर फिर मनुष्यभव प्राप्त कराकर, फिर उस भागसे संयुक्त होकर मोक्ष होता है।
.. ११. चाहे जिस कालमें कर्म है, उसका बन्ध है, और उस बन्धकी निर्जरा है, और सम्पूर्ण निर्जराका नाम 'मोक्ष' है।
१२. निर्जराके दो भेद हैं-एक सकाम अर्थात् सहेतु (मोक्षकी हेतुभूत) निर्जरा और दूसरी अकाम अर्थात् विपाकनिर्जरा.:. . .: १३. अकामनिर्जरा औदयिक भावसे होती है । यह निर्जरा जीवने अनंत बार की है और यह कर्मबन्धका कारण है।
१४. सकामनिर्जरा क्षायोपशमिक भावसे होती है, जो कर्मके बन्धका कारण है। जितने अंशमें सकामनिर्जरा (क्षायोपशमिक भावसे) होती है उतने अंशमें आत्मा प्रगट होता है। यदि अकाम (विपाक) निर्जरा हो तो वह औदयिक भावसे होती है, और वह कर्मबन्धका कारण है। यहाँ भी कर्मकी निर्जरा होती है, परन्तु आत्मा प्रगट नहीं होता। :: .. १५. अनंत बार चारित्र प्राप्त करनेसे जो निर्जरा हुई है वह औदयिक भावसे (जो भाव अबन्धक नहीं है) हुई है; क्षायोपशमिक भावसे नहीं हुई । यदि वैसे हुई होती तो इस तरह भटकना नहीं पड़ता।
१६. मार्ग दो प्रकारके हैं-एक लौकिक मार्ग और दूसरा लोकोत्तर मार्ग; जो एक दूसरेसे विरुद्ध हैं ।
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