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उपदेश छाया
७३३ . निजस्वभाव ज्ञानमें केवल उपयोगसे, तन्मयाकार, सहज स्वभावसे, निर्विकल्परूपसे आत्मा जो परिणमन करता है वह केवलज्ञान' है । तथारूप प्रतीतिरूपसे जो परिणमन करता है वह 'सम्यक्त्व है। निरंतर वह प्रतीति रहा करे उसे 'क्षायिक सम्यक्त्व' कहते हैं । क्वचित् मंद, क्वचित् तीन, क्वचित् विसर्जन, क्वचित् स्मरणरूप ऐसी प्रतीति रहे, उसे 'क्षयोपशम सम्यक्त्व' कहते हैं। उस प्रतीतिको जब तक सत्तागत आवरण उदय नहीं आयें, तब तक 'उपशम सम्यक्त्व' कहते हैं। आत्माको आवरण उदयमें आये तब वह प्रतीतिसे गिर जाता है उसे 'सास्वादन सम्यक्त्व' कहते हैं। अत्यन्त प्रतीति होनेके योगमें सत्तागत अल्प पुद्गलका वेदन करना जहाँ रहा है, उसे 'वेदक सम्यक्त्व' कहते हैं। तथारूप प्रतीति होनेपर अन्यभाव संबंधी अहत्व, ममत्व आदि, हर्ष-शोकका क्रमसे क्षय होता है। मनरूप योगमें तारतम्यसहित जो कोई चारित्रकी आराधना करता है वह सिद्धि प्राप्त करता है; और जो स्वरूपस्थितिका सेवन करता है वह 'स्वभावस्थिति' पाता है। निरंतर स्वरूपलाभ, स्वरूपाकार उपयोगका परिणमन इत्यादि स्वभाव अंतराय कर्मके क्षयसे प्रगट होते हैं । जो केवल स्वभावपरिणामी ज्ञान है वह 'केवलज्ञान' है। .
११ . आणंद, भादों वदो १, मंगल, १९५२ ' 'जंबुद्वीपप्रज्ञप्ति' नामके जैनसूत्र में ऐसा कहा है कि इस कालमें मोक्ष नहीं है। इससे यह न समझें कि मिथ्यात्वका दूर होना, और उस मिथ्यात्वके दूर होनेरूप मोक्ष नहीं है । मिथ्यात्वके दूर होनेरूप मोक्ष हैं; परन्तु सर्वथा अर्थात् आत्यंतिक देहरहित मोक्ष नहीं है । इससे यह कहा जा सकता है कि सर्व प्रकारका केवलज्ञान नहीं होता; बाकी सम्यक्त्व नहीं होता, ऐसा नहीं है। इस कालमें मोक्षके अभावकी ऐसी बातें कोई कहे उसे न सुनें । सत्पुरुषकी बात पुरुषार्थको मंद करनेवाली नहीं होती, अपितु पुरुषार्थको उत्तेजन देनेवाली होती है।
. विष और अमृत समान हैं, ऐसा ज्ञानियोंने कहा हो तो वह अपेक्षित है। विष और अमृत समान कहनेसे विष लेनेका कहा है यह बात नहीं है । इसी तरह शुभ और अशुभ दोनों क्रियाओंके संबंधमें समझें। शुभ और अशुभ क्रियाका निषेध कहा हो तो मोक्षकी अपेक्षासे है। इसलिये शुभ और अशुभ क्रिया समान है, यह समझकर अशुभ किया करनी, ऐसा ज्ञानीपुरुषका कथन कभी भी नहीं होता। सत्पुरुषका वचन अधर्ममें धर्मका स्थापन करनेका कभी भी नहीं होता।
___ जो क्रिया करें उसे निर्दभतासे, निरहंकारतासे करें। क्रियाके फलको आकांक्षा न रखे। शुभ क्रियाका कोई निषेध हैं ही नहीं; परंतु जहाँ जहाँ शुभ क्रियासे मोक्ष माना है वहाँ वहाँ निषेध है। . शरीर ठीक रहे, यह भी एक तरहको समाधि है । मन ठीक रहे यह भी एक तरहकी समाधि है। सहजसमाधि अर्थात् बाह्य कारणोंके बिनाकी समाधि । उससे प्रमाद आदिका नाश होता है। जिसे यह समाधि रहती है, उसे पुत्रमरण आदिसे भी असमाधि नहीं होती, और उसे कोई लाख रुपये दे तो आनंद नहीं होता, अथवा कोई छीन ले तो खेद नहीं होता। जिसे साता-असाता दोनों समान है उसे सहजसमाधि कहा है। समकितदृष्टिको अल्प हपं, अल्प शोक कभी हो जाये परंतु फिर वह शांत हो जाता है, अंगका हर्ष नहीं रहता; ज्यों हो उसे खेद हो त्यों ही वह उसे पोछे खींच लेता है । वह सोचता है कि ऐसा होना योग्य नहीं, और आत्माको निंदा करता है। हर्प शोक हो तो भी उसका (समकितका) मूल नष्ट नहीं होता । समकितदृष्टिको अंशसे सहज प्रतीतिके अनुसार सदा ही समाधि रहती है। पतंगकी डोरी जैसे हाथमें रहती है वैसे समकितदृष्टिके हाथमें उसकी वृत्तिरूपी डोरी रहती है । समकितदृष्टि जीवको सहजसमाधि है। सत्तामें कर्म रहे हों, परंतु स्वयंको सहजसमाधि है। बाहरके कारणोंसे उसे समाधि नहीं है। आत्मामेंसे जो मोह चला गया वही समाधि है। अपने हाथमें डोरी न होनेसे मिथ्यादृष्टि बाह्य कारणोंमें