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उपवेश छाया
सँभालनेसे सँभाली नहीं जाती, क्योंकि वह क्षणमें नष्ट हो जाती है, क्षणमें रोग, क्षणमें वेदना हो जाती 1. है । देहके संगसे देह दुःख देती है; इसलिये आकुल व्याकुलता होती है यही अज्ञान है । शास्त्रका श्रवण कर रोज सुना है कि देह आत्मासे भिन्न है, क्षणभंगुर है; परन्तु देहमें वेदना होनेपर तो रागद्वेष परिणाम करके हाय-हाय करता है । देह क्षणभंगुर है, ऐसी बात आप शास्त्रमें क्यों सुनने जाते हैं ? देह तो आपके पास है. तो अनुभव करें । देह स्पष्ट मिट्टी जैसी है, सँभालनेसे सँभाली नहीं जाती, रखनेसे रखी नहीं जाती । वेदनाका वेदन करते हुए उपाय नहीं चलता । तब क्या सँभालें ? कुछ भी नहीं हो सकता । ऐसा देहका प्रत्यक्ष अनुभव होता है, तो फिर उसकी ममता करके क्या करना ? देहका प्रत्यक्ष अनुभव करके शास्त्रमें कहा है कि वह अनित्य है, असार है, इसलिये देहमें मूर्च्छा करना योग्य नहीं हैं ।
जब तक देहात्मबुद्धि दूर नहीं होती तब तक सम्यक्त्व नहीं होता। जीवको सत्य कभी मिला ही नहीं मिला होता तो मोक्ष हो जाता । भले ही साधुपन, श्रावकपन अथवा तो चाहे जो स्वीकार कर लें परन्तु सत्यके बिना साधन व्यर्थ है । देहात्मबुद्धि मिटानेके लिये जो साधन बताये हैं वे, देहात्मबुद्धि मिटे तभी सच्चे समझे जाते हैं । देहात्मबुद्धि हुई है उसे मिटानेके लिये, ममत्व छुड़ाने के लिये साधन करने . हैं 1. वह न मिटे तो साधुपन, श्रावकपन, शास्त्र श्रवण या उपदेश सब कुछ अरण्यरुदनके समान हैं । जिसका यह भ्रम नष्ट हो गया है, वही साधु, वही आचार्य, वही ज्ञानी है । जिस तरह कोई अमृतभोजन करे वह कुछ छिपा नहीं रहता, उसी तरह भ्रांति, भ्रमबुद्धि दूर हो जाये वह कुछ छिपा नहीं रहता ।
लोग कहते हैं कि समकित है या नहीं, वह केवलज्ञानी जाने; परन्तु स्वयं आत्मा है वह क्यों न जाने ? कहीं आत्मा गॉंव नहीं चला गया; अर्थात् समकित हुआ है. उसे आत्मा स्वयं जानता है । जिस तरह कोई पदार्थ खानेपर उसका फल होता है, उसी तरह समकित होनेपर भ्रान्ति दूर होनेपर, उसका फल स्वयं जानता है | ज्ञानका फल ज्ञान देता ही है । पदार्थका फल पदार्थ लक्षणके अनुसार देता ही है । आत्मामेंसे, अन्तरमेंसे कर्म जानेको तैयार हुए हों उसकी खबर अपनेको क्यों न पड़े ? अर्थात् खवर पड़ती ही है । समकित की दशा छिपी नहीं रहती । कल्पित समकितको' समकित मानना वह पीतलकी कंठीको सोनेकी कंठी मानने जैसा है ।
तो
समकित हुआ हो तो देहात्मबुद्धि नष्ट होती है; यद्यपि अल्प बोध, मध्यम बोध, विशेष बोध- जैसा भी बोध हो तदनुसार पीछेसे देहात्मबुद्धि नष्ट होती है । देहमें रोग होनेपर जिसमें आकुल व्याकुलता • दिखाई दे उसे मिथ्यादृष्टि समझें ।
. जिस ज्ञानीको आकुल व्याकुलता मिट गयी है, क्खान आ जाते हैं । जिसके रागद्वेष नष्ट हो गये हैं
उसे अन्तरंग पच्चक्खान ही है, उसमें सभी पच्चउसे यदि बीस वरसका पुत्र मर जाये तो भी खेद
. नहीं होता । शरीरमें व्याधि होनेसे जिसे व्याकुलता होती है, और जिसका ज्ञान कल्पना मात्र है उसे
• खोखला अध्यात्मज्ञान मानें। ऐसे कल्पित ज्ञानी उस खोखले ज्ञानको अध्यात्मज्ञान मानकर अनाचारका सेवन करके बहुत ही भटकते हैं । देखिये शास्त्रका फल !
आत्माको पुत्र भी नहीं होता और पिता भी नहीं होता ! जो ऐसी (पिता-पुत्रकी ) कल्पनाको सच्चा मान बैठे हैं वे मिथ्यात्वी हैं । कुसंगके कारण समझमें नहीं आता; इसलिये समकित नहीं आता । योग्य जीव हो तो सत्पुरुषके संगसे सम्यक्त्व होता है ।
सम्यक्त्व और मिथ्यात्वका तुरत पता चल जाता है । समकिती ओर मिथ्यात्वीकी वाणी घड़ीघड़ीमें भिन्न दिखाई देती है। ज्ञानीकी वाणी एकतार पूर्वापर मिलती चली आती है । अन्तग्रन्थिभेद होनेपर ही सम्यक्त्व होता है। रोगको जाने, रोगकी दवा जाने, परहेज जाने. पय्य जाने और तदनुसार उपाय