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उपदेश छाया
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...: समकितका सचमुच विचार करे तो नौवें समयमें केवलज्ञान होता है, नहीं तो एक भवमें केवलज्ञान होता है; और अंतमें पंद्रहवें भवमें तो केवलज्ञान होता ही है । इसलिये समकित सर्वोत्कृष्ट है । भिन्न भिन्न विचार-भेद आत्मामें लाभ होनेके लिये कहे गये है, परन्तु भेदोंमें ही आत्माको फंसानेके लिये नहीं कहे हैं। प्रत्येकमें परमार्थ होना चाहिये । समकितीको केवलज्ञानको इच्छा नहीं है !
. : अज्ञानी गुरुओंने लोगोंको उलटे मार्गपर चढ़ा दिया है। उलटा मार्ग पकड़ा दिया है, इसलिये लोग गच्छ; कुल आदि लौकिक भावोंमें तदाकार हो गये हैं। अंज्ञानियोंने लोगोंको बिलकुल उलटा ही मार्ग समझा दिया है। उनके संगसे इस कालमें अंधकार हो गया है। हमारी कही हुई एक एक बातको याद कर करके विशेषरूपसे पुरुषार्थ करें। गच्छ आदिके कदाग्रह छोड़ देने चाहिये । जीव अनादिकालसे भटका है। समकित हो तो सहज में ही समाधि हो जाये, और परिणाममें कल्याण हो । जीव सत्पुरुषके आश्रयसे यदि आज्ञा आदिका सचमुच आराधन करे, उसपर प्रतीति लाये, तो उपकार होगा ही।
एक तरफ तो चौदह राजूलोकका सुख हो, और दूसरी तरफ सिद्धके एक प्रदेशका सुख हो तो भी सिद्धके एक प्रदेशका सुख अनंतगुना हो जाता है।
वृत्तिको चाहे जिस तरहसे रोकें; ज्ञानविचारसे रोकें; लोकलाजसे रोकें, उपयोगसे रोकें; चाहे जिस तरह भी वृत्तिको रोकें । किसी पदार्थके बिना चले नहीं ऐसा मुमुक्षुको नहीं होना चाहिये।
: जीव ममत्व मानता है, वही दुःख है, क्योंकि ममत्व माना कि चिंता हुई कि कैसे होगा ? कैसे करें? चितामें जो स्वरूप होता है, तद्रूप हो जाता है, वही अज्ञान है। विचारसे, ज्ञानसे. देखें तो ऐसा प्रतीत होता है कि कोई मेरा नहीं है । यदि एककी चिंता करे तो सारे जगतकी चिंता करनी चाहिये । इसलिये प्रत्येक प्रसंगमें ममत्व न होने दें, तो चिंता, कल्पना कम होगी। तृष्णाको यथासंभव कम करें। विचार कर करके सृष्णाको कम करें। इस देहको पचास रुपयेका खर्च चाहिये, उसके बदले हजारों लाखोंकी चितारूप अग्निसे दिनभर जला करता है। बाह्य उपयोग तृष्णाकी वृद्धि होनेका निमित्त है । जीव बड़ाईके लिये तृष्णाको बढ़ाता है। उस बड़ाईको रखकर मुक्ति नहीं होती। जैसे बने वैसे बड़ाई, तुष्णा कम करें। निर्धन कौन ? जो धन माँगे, धन चाहे, वह निर्धन; जो न माँगे वह धनवान है। जिसे विशेष लक्ष्मीको तृष्णा, संताप और जलन है, उसे जरा भी सुख नहीं है.। लोग समझते हैं कि श्रीमंत सुखी है, परन्तु वस्तुतः उसे रोम-रोममें पीड़ा है । इसलिये तृष्णा कम करें। - आहारकी बात अर्थात् खानेके पदार्थोंकी वात तुच्छ है, वह न करें। विहारकी अर्थात् स्त्री, क्रीडा आदिकी बातःबहुत तुच्छ है। निहारकी बात भी बहुत तुच्छ है । शरीरको साता या दोनता यह सब तुच्छताकी बातें न करें।.आहार विष्टा है। विचार करे कि खानेके बाद विष्टा हो जाती है। विष्टा गाय खाती है तो दूध हो जाता है, और खेतमें खाद डालनेसे अनाज होता है । इस प्रकार उत्पन्न हुए अनाजके आहारको विष्टा तुल्य जानकर उसकी चर्चा न करे । यह तुच्छ वात है।
: सामान्य जीवोंसे बिलकुल मौन नहीं रहा जाता, और रहें तो अन्तरकी कल्पना नहीं मिटती; और जब तक कल्पना हो तब तक उसके लिये रास्ता निकालना ही चाहिये। इसलिये फिर लिखकर कल्पना बाहर निकालते हैं। परमार्थकाममें बोलना, व्यवहारकाममें विना प्रयोजन बकवास नहीं करना । जहाँ माथापच्ची होती है वहाँसे दूर रहना; वृत्ति कम करनी । .: क्रोध, मान, माया और लोभको मुझे कृश करना है। ऐसा जव लक्ष्य होगा, जब इस लक्ष्य में थोडा थोड़ा भी वर्तन होगा तब फिर सहजरूप हो जायेगा । बाह्य प्रतिबन्ध, अन्तर प्रतिबन्ध आदि आत्माको आवरण करनेवाला प्रत्येक दूषण जानने में आये कि उसे दूर भगानेका अभ्यास करें। क्रोध आदि थोडे थोड़े दुर्वल पड़नेके बाद सहजरूप हो जायेंगे। फिर उन्हें वशमें लेनेके लिये यथाशक्ति अभ्यास रखें और