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श्रीमद राजचन्द्र
ज्ञान जो काम करता है वह अद्भुत है। सत्पुरुषके वचनों के बिना विचार नहीं आता; विचारके बिना वैराग्य नहीं आता, वैराग्य एवं विचारके बिना ज्ञान नहीं आता । इस कारणसे सत्पुरुषके वचनोंका वारंवार विचार करें ।
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सम्पूर्ण आशंका दूर हो तो बहुत निर्जरा होती है । जीव यदि सत्पुरुषका मार्ग जानता हो, उसका उसे वारम्वार बोध होता हो, तो बहुत फल होता है ।
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सात नय अथवा अनंत नय हैं, वे सब एक आत्मार्थके लिये ही हैं, और आत्मार्थ यही एक सच्चा नय है । नयका परमार्थ जीवसे निकले तो फल होता है; अंत में उपशमभाव आये तो फल होता है; नहीं तो नयका ज्ञान जीवके लिये जालरूप हो जाता है; और वह फिर अहंकार बढ़नेका स्थान होता है । सत्पुरुष के आश्रयसे जाल दूर हो जाता है ।
व्याख्यानमें कोई भंगजाल, राग (स्वर) निकालकर सुनाता है, परन्तु उसमें आत्मार्थ नहीं है । यदि सत्पुरुषके आश्रयसे कषाय आदि मंद करें, और सदाचारका सेवन कर अहंकाररहित हो जायें, तो आपका और दूसरेका हित होगा । दंभरहित, आत्मार्थके लिये सदाचारका सेवन करें कि जिससे उपकार हो ।
खारी जमीन हो और उसमें वर्षा हो तो वह किस कामकी ? इसी तरह जब तक ऐसी स्थिति हो कि आत्मामें उपदेश-वार्ता परिणमन न करे तब तक वह किस कामकी ? जब तक उपदेशवार्ता आत्मामें परिणमन न करे तब तक उसे पुनः पुनः सुने, विचार करें, उसका पीछा न छोड़े, कायर न बनें; कायर हो तो आत्मा ऊँचा नहीं उठता । ज्ञानका अभ्यास जैसे बने वैसे बढ़ायें; अभ्यास रखें; उसमें कुटिलता या अहंकार न रखें ।
मन
आत्मा अनंत ज्ञानमय है। जितना अभ्यास बढ़े उतना कम है । 'सुन्दरविलास' आदि पढ़नेका अभ्यास रखें। गच्छ या मतमतांतरकों पुस्तकें हाथमें न लें। परम्परासे भी कदाग्रह आ गया, तो जीव फिर मारा जाता है । इसलिये मतोंके कदाग्रहकी बातोंमें न पड़े। मतोंसे अलग रहें, दूर रहें। जिन पुस्तकोंसे वैराग्य-उपशम हो वे समकित दृष्टिकी पुस्तकें हैं । वैराग्यवाली पुस्तकें पढ़ें- 'मोहमुद्गर', 'मणिरत्नमाला' आदि ।
दया, सत्य आदि जो साधन हैं वे विभावका त्याग करनेके साधन हैं। अंतःस्पर्शसे तो विचारको बड़ा सहारा मिलता है। अब तकके साधन विभावके आधार थे; उन्हें सच्चे साधनोंसे ज्ञानी पुरुष हिला देते हैं । जिसे कल्याण करना हो उसे सत्साधन अवश्य करने होते हैं ।
सत्समागममें जीव आया, और इन्द्रियोंकी लुब्धता न गयी तो समझें कि सत्समागम में नहीं आया । जब तक सत्य नहीं बोलता तब तक गुण प्रगट नहीं होता । सत्पुरुष हाथसे पकड़कर व्रत दे तो लें । ज्ञानीपुरुष परमार्थका ही उपदेश देते हैं । मुमुक्षुओंको सच्चे साधनोंका सेवन करना योग्य है ।
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समकितके मूल बारह व्रत हैं— स्थूल प्राणातिपात, स्थूल मृषावाद आदि । सभी स्थूल कहकर ज्ञानीने आत्माका और ही मार्ग समझाया है । व्रत दो प्रकार के हैं - ( १ ) समकित के बिना बाह्य व्रत हैं, और (२) समकितसहित अंतर्व्रत हैं । समकितसहित बारह व्रतोंका परमार्थ समझमें आये तो फल होता है ।
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बाह्यव्रत अन्तर्व्रतके लिये है, जैसे कि एकका अंक सीखनेके लिये लकीरें होती है वैसे । पहले तो लकोरें खींचते हुए एकका अंक टेढ़ा-मेढ़ा होता है, और यों करते करते फिर एकका अंक ठीक बन जाता है । जीव जो जो सुना है वह सब उलटा ही ग्रहण किया है । ज्ञानी बिचारे क्या करे ? कितना समझाये ? समझानेकी रोतिसे समझाते हैं । मारकूट कर समझानेसे आत्मज्ञान नहीं होता। पहले जो जो व्रत आदि किये थे वे सब निष्फल गये; इसलिये अब सत्पुरुषको दृष्टिसे उसका परमार्थ और ही समझमें