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श्रीमद राजचन्द्र
उस विचारमें समय वितायें । किसीके प्रसंगसे क्रोध आदि उत्पन्न होनेका निमित्त मानते हैं; उसे न मानें । उसे महत्त्व न दें; क्योंकि क्रोध स्वयं करें तो होता है । जब अपनेपर कोई क्रोध करे तब विचार करें कि : उस बेचारेको अभी उस प्रकृतिका उदय है, अपने आप घड़ी दो घड़ी में शांत हो जायेगा । इसलिये यथासम्भव अंतविचार करके स्वयं स्थिर रहें । क्रोधादि कषाय आदि दोषका सदा विचार कर करके उन्हें दुर्बल करें । तृष्णा कम करें क्योंकि वह एकांत दुःखदायी है । जैसे उदय होगा वैसे होगा, इसलिये तृष्णाको अवश्य कम करें । बाह्य प्रसंग अंतर्वृत्तिके लिये आवरणरूप हैं इसलिये उन्हें यथासंभव कम करते रहें
चेलातीपुत्र किसीका सिर काट लाया था। उसके बाद वह ज्ञानीसे मिला और कहा – 'मोक्ष दो; नहीं तो सिर काट डालूंगा ।' फिर ज्ञानीने कहा -- क्या बिलकुल ठीक कहता है ? विवेक ( सच्चेको सच्चा समझना), शम (सबपर समभाव रखना) और उपशम (वृत्तियोंको बाहर नहीं जाने देना और अंतवृत्ति रखना), उन्हें अधिकाधिक आत्मामें परिणमानेसे आत्माका मोक्ष होता है ।
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कोई एक सम्प्रदायवाले ऐसा कहते हैं कि वेदांतीकी मुक्तिकी अपेक्षा - इस भ्रमदशाकी अपेक्षा. चार गतियाँ अच्छी; इनमें अपने सुखदुःखका अनुभव तो रहता है ।
वेदांती ब्रह्ममें समा जानेरूप मुक्ति मानते हैं, इसलिये वहाँ अपनेको अपना अनुभव नहीं रहता । पूर्व मीमांसक देवलोक मानते हैं, फिर जन्म अवतार हो ऐसा मोक्ष मानते हैं । सर्वथा मोक्ष नहीं होता, होता हो तो बंधता नहीं, बंधे तो छूटता नहीं । शुभ क्रिया करे उसका शुभ फल होता है, फिरसे संसारमें आना-जाना होता है, यों सर्वथा मोक्ष नहीं होता- ऐसा पूर्वमीमांसक मानते हैं । .
सिद्धमें संवर नहीं कहा जाता, क्योंकि वहाँ कर्म नहीं आते, इसलिये फिर रोकना भी नहीं होता । मुक्तमें स्वभाव संभव है, एक गुणसे, अंशसे लेकर सम्पूर्णं तक । सिद्धदशामें स्वभावसुख प्रगट हुआ, कर्मके आवरण दूर हुए, इसलिये अब संवर और निर्जरा किसे होंगे ? तीन योग भी नहीं होते । मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय, योग इन सबसे जो मुक्त हुआ उसे कर्म नहीं आते । इसलिये उसे कर्मोंका निरोध करना नहीं होता । एक हजारकी रकम हो और उसे थोड़ा थोड़ा करके पूरा कर दिया तो फिर खाता बंद हो गया, इसी तरह कर्मों के पाँच कारण थे, उन्हें संवर- निर्जरासे समाप्त कर दिया, इसलिये पांच कारणरूप खाता बंद हो गया, अर्थात् बादमें फिर वे प्राप्त होते ही नहीं । .
धर्मसंन्यास = क्रोध, मान, माया, लोभ आदि दोषों का नाश करना । .
जीव तो सदा जीवित हो है । वह किसी समय सोता नहीं या मरता नहीं; उसका मरना संभव नहीं । स्वभावसे सर्व जोव जीवित ही हैं। जैसे श्वासोच्छ्वास के बिना कोई जीव देखनेमें नहीं आता वैसे ही ज्ञानस्वरूप चैतन्य के बिना कोई जीव नहीं है ।
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आत्माकी निंदा करें, और ऐसा खेद करें कि जिससे वैराग्य आये, संसार झूठा लगे । चाहे जो . कोई मरे, परन्तु जिसकी आँखोंमें आँसू आयें, संसारको असार जानकर जन्म, जरा और मरणको महा भयंकर जानकर वैराग्य पाकर आँसू आयें वह उत्तम है । अपना लड़का मर जाये, और रोये, इसमें कोई विशेषता नहीं है, यह तो मोहका कारण है ।
आत्मा पुरुषार्थं करे तो क्या नहीं होता ? बड़े बड़े पर्वतके पर्वत काट डाले हैं, और कैसे कैसे विचार करके उन्हें रेल्वेके काम में लिया है ! ये तो बाहरके काम हैं, फिर भी विजय पायी है । आत्माका विचार करना, यह कोई बाहरकी बात नहीं है । जो अज्ञान है वह मिटे तो ज्ञान हो ।.
अनुभवी वैद्य तो दवा देता है, गुरु अनुभव करके ज्ञानरूप दवा देते
हैं,
परन्तु रोगी यदि उसे खाये तो रोग दूर होता है । इसी तरह सद्परन्तु मुमुक्षु उसे ग्रहण करे तो मिथ्यात्वरूप रोग दूर होता है।