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भीमद राजचन्द्र .', ढढिया और तपा तिथियोका विरोध खडा करके-अलग होकर-'मै अलग है', ऐसा सिद्ध करनेके लिये झगडा करते है यह मोक्ष जानेका रास्ता नही है। वृक्षको भानके बिना कर्म भोगने पडते है तो मनुष्यको शुभाशुभ क्रियाका फल क्यो नही भोगना पड़े ?
जिससे सचमुच पाप लगता है उसे रोकना अपने हाथमे है, वह अपनेसे हो सकता है, उसे तो जीव नही रोकता, और दूसरी तिथि आदिकी और पापकी व्यर्थ चिंता किया करता है । अनादिसे शब्द, रूप रस, गध और स्पर्शका मोह रहा है। उस मोहका निरोध करना है । वडा पाप अज्ञानका है। . जिसे अविरतिके पापको चिंता होती हो उससे वैसे स्थानमे कैसे रहा जा सकता है? '
- स्वयं त्याग नही कर सकता और बहाना करता है कि मुझे अतराय बहुत है । धर्मका प्रसंग आता हैं तो कहता है, 'उदय है ।' 'उदय उदय' कहा करता है, परन्तु कुछ कुएँमे नही गिर जाता, छकडेमे बैठा हो और गड्ढा आ जाये तो ध्यानसे सँभलकर चलता है। उस समय उदयको भूल जाता है । अर्थात् अपनी शिथिलता हो तो उसके बदले उदयका दोष निकालता है, ऐसा अज्ञानीका वर्तन है।
लौकिक और अलौकिक स्पष्टीकरण भिन्न भिन्न होते हैं। उदयका दोष निकालना यह लौकिक स्पष्टीकरण है। अनादिकालके कर्म दो घड़ीमे नष्ट होते हैं, 'इसलिये कर्मका दोपन निकालें । आत्माको निंदा करें। धर्म करनेकी बात आती है तब जीव पूर्वकृत कर्मकी बात आगे कर देता है । जो धर्मको आगे करता है उसे धर्मका लाभ होता है, और जो कर्मको आगे करता है उसे कर्म आडे आता है, इसलिये पुरुषार्थ करना श्रेष्ठ हे ! पुरुषार्थ पहले करना चाहिये । मिथ्यात्व, प्रमाद और अशुभ योगको छोडना चाहिये।
। पहले तप नहीं करना, परन्तु मिथ्यात्व और प्रमादका पहले त्याग करना चाहिये । सबके परिणामोके अनुसार शुद्धता एव अशुद्धता होती है। कर्म दूर किये बिना दूर होनेवाले नही है । इसीलिये ज्ञानियोने शास्त्र प्ररूपित किये है। शिथिल होनेके लिये साधन नही बताये । परिणाम ऊँचे आने चाहिये । कर्म उदयमे आयेगा, ऐसा मनमे रहे तो कर्म उदयमें आता है । बाकी पुरुषार्थ करे तो कर्म दूर हो जाते हैं। उपकार हो यही ध्यान रखना चाहिये। " - : । ...
वडवा, भाद्रपद सुदी १०, गुरु, १९५२ - कर्म-गिन गिनकर नष्ट ,नही किये जाते;। ज्ञानीपुरुष तो एकदम समूहरूपसे जला देते हैं। --
विचारवान दूसरे आलवन छोडकर, आत्माके पुरुषार्थके जयका, आलबन-ले । कर्मबंधनका आल. बन न लें। आत्मामे परिणमित, होना अनुप्रेक्षा, है | . . , -.. मिट्टीमे घड़ा होनेकी सत्ता है, परन्तु यदि दड, चक्र, कुम्हार, आदि मिले तो होता है। इसी तरह आत्मा मिट्टीरूप है, उसे सद्गुरु आदि साधन मिले तो आत्मज्ञान होता है। जो ज्ञान हुआ हो वह पूर्वकालमे हुए ज्ञानियोका सपादन किया हुआ है उसके साथ पूर्वापर मिलता आना चाहिये, और वर्तमानमे भी जिन ज्ञानीपुरुषोने ज्ञानका सपादन किया है, उनके वचनोके साथ मेल खाता हुआ होना चाहिये, नही तो अज्ञानको ज्ञान मान लिया है ऐसा कहा जायेगा।, ..
. । ज्ञान दो प्रकारके है-एक बीजभूत ज्ञान, और दूसरा वृक्षभूत ज्ञान । प्रतीतिसे दोनो सरीखे हैं, उनमे भेद नहीं है । वृक्षभूत ज्ञान सर्वथा निरावरण हो तो उसो भवमे 'मोक्ष होता है, और बीजभूत ज्ञान हो तो अतमे पंद्रह भवमे मोक्ष होता है। " आत्मा अरूपी है; अर्थात् वर्ण-गंध-रस-स्पर्शरहित वस्तु है, अवस्तु नही है।
जिसने षड्दर्शन रचे हैं उसने बहुत ही चतुराईका उपयोग किया है।
बंध अनेक अपेक्षामोसे होता है, परन्तु मूल प्रकृतियाँ आठ हैं, वे कर्मकी ऑटी खोलनेके लिये आठ प्रकारसे कही हैं।