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श्रीमद राजचन्द्र
नामसे देहको दड हो यह अच्छा है । इसके नामसे सब कुछ सीधा । देह रखनेके लिये भगवानका नाम नही लेना है | भले देहको मार पडे यह अच्छा - क्या करना है देहको ।'
अच्छा समागम, अच्छी रहन-सहन हो वहाँ समता आती है । समताकी विचारणा के लिये दो घड़ीकी सामायिक करना कहा है । सामायिक मे उलटे-सुलटे मनोरथोका चिंतन करे तो कुछ भी फल नही होता । मनके दौड़ते हुए घोडोको रोकनेके लिये सामायिकका विधान है।
सवत्सरीके दिनसंबंधी एक पक्ष चतुर्थीकी तिथिका आग्रह करता है, और दूसरा पक्ष पचमीकी तिथिका आग्रह करता है । आग्रह करनेवाले दोनो मिथ्यात्वी है । ज्ञानीपुरुपोने जो दिन निश्चित किया होता है वह आज्ञाका पालन होनेके लिये होता है । ज्ञानी पुरुष अष्टमी न पालनेकी आज्ञा करें और दोनोको सप्तमी पालने को कहे अथवा सप्तमी अष्टमी इकट्ठी करेगे यो मोचकर षष्ठी कहे अथवा उसमे भी पचमी इकट्ठी करेंगे यो सोचकर दूसरी तिथि कहे तो वह आज्ञा पालनेके लिये कहते है । बाकी तिथियोका भेद' छोड़ देना चाहिये । ऐसी कल्पना नही करनी चाहिये, ऐसे भगजालमे नही पड़ना चाहिये । ज्ञानीपुरुषोने तिथियोकी मर्यादा आत्मार्थ के लिये की है ।
यदि अमुक दिन निश्चित न किया होता, तो आवश्यक विधियोका नियम न रहता । आत्मार्थके लिये तिथिकी मर्यादाका लाभ ले ।
आनदघनजीने श्री अनतनाथस्वामीके स्तवनमे कहा है
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'एक कहे सेवीए विविध किरिया करी, फळ अनेकात लोचन न देखे ।
फळ अनेकात किरिया करी बापड़ा, रडवडे चार गतिमाही लेखे ॥'
अर्थात् जिस क्रिया करनेसे अनेक फल हो वह क्रिया मोक्षके लिये नही है । अनेक क्रियाओका फल एक मोक्ष ही होना चाहिये । आत्मा के अश प्रगट होनेके लिये क्रियाओका वर्णन है । यदि क्रियाओका वह फल न हुआ तो वे सब क्रियाएँ ससारके हेतु हैं ।
'निदामि, गरिहामि, अप्पाण वोसिरामि' ऐसा जो कहा है उसका हेतु कषायके त्याग करनेका है, परन्तु बेचारे लोग तो एकदम आत्माका ही त्याग कर देते है ।
जोव देवगतिकी, मोक्षके सुखको अथवा दूसरी वैसी कामनाकी इच्छा न रखे ।
पचमकालके गुरु कैसे है उसके बारेमे एक संन्यासीका दृष्टात - एक सन्यासी था । वह अपने शिष्यके घर गया । ठडी बहुत थी । जीमने बैठते समय शिष्यने नहानेको कहा । तब गुरुने मनमे विचार किया 'ठडी बहुत है, और नहाना पडेगा ।' यो सोचकर सन्यासीने कहा 'मै तो ज्ञानगगाजलमे स्नान कर रहा हूँ ।' शिष्य विचक्षण होनेसे समझ गया, और उसने, गुरुको कुछ शिक्षा मिले ऐसा रास्ता लिया । शिष्यने 'भोजनके लिये पधारे' ऐसे मानसहित बुलाकर भोजन कराया। प्रसादके बाद गुरु महाराज एक कोठडीमे सो गये । गुरुको तृपा लगी इसलिये शिष्यसे जल माँगा । तब तुरत शिष्यने कहा 'महाराज, जल ज्ञानगगामेसे पी लें ।' जब शिष्यने ऐसा कठिन रास्ता लिया तब गुरुने कबूल किया 'मेरे पास ज्ञान नही है । देहकी साताके लिये ठडीमे मैने स्नान नही करनेका कहा था ।'
मिथ्यादृष्टिके पूर्व के जप-तप अभी तक मात्र आत्महितार्थं नही हुए I
आत्मा मुख्यत आत्मस्वभावसे वर्तन करे वह 'अध्यात्मज्ञान' | मुख्यत' जिसमे आत्माका वर्णन किया हो वह 'अध्यात्मशास्त्र' । भाव- अध्यात्मके बिना अक्षर ( शब्द ) अध्यात्मीका मोक्ष नही होता । जो गुण अक्षरो कहे गये है वें गुण यदि आत्मामे रहे तो मोक्ष होता है । सत्पुरुषमे भाव -अध्यात्म प्रगट है । भावार्थ: कु - कुछ लोग कहते हैं कि भिन्न-भिन्न प्रकारकी सेवा-भवित अथवा क्रिया करके भगवानकी सेवा करते हैं, परतु उन्हे क्रियाका फल दिखायी नही देता । वे बेचारे एकसा फल न देनेवाली क्रिया करके चारो गतियो में भटकते रहते हैं, और उनकी मुक्ति नही हो पाती ।