________________
उपदेश छाया
७१५ सामायिक-शास्त्रकारने विचार किया कि यदि कायाको स्थिर रखना होगा तो फिर विचार करेगा; नियम नही बनाया होगा तो दूसरे काममे लग जायेगा, ऐसा समझकर उस प्रकारका नियम बनाया । जैसे मनपरिणाम रहे वैसी सामायिक होती है। मनका घोडा दौडता हो तो कर्मबंध होता है। मनका घोड़ा दौडता हो, और सामायिक की हो तो उसका फल कैसा होगा?
कर्मबधको थोड़ा थोडा छोडना चाहे तो छूटता है। जैसे कोठो भरी हो, परन्तु छेद करके निकाले तो अन्तमे खाली हो जाती है । परन्तु दृढ इच्छासे कर्मोको छोड़ना ही सार्थक है।
आवश्यकके छ प्रकार-सामायिक, चतुर्विशतिस्तवन, वन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग, प्रत्याख्यान | सामायिक अर्थात् सावद्ययोगकी निवृत्ति ।
वाचना ( पढना ), पृच्छना ( पूछना ), परावर्तना (पुन पुन विचार करना), धर्मकथा (धर्मविषयक कथा करनी ), ये चार द्रव्य है, और अनुप्रेक्षा ये भाव हैं। यदि अनुप्रेक्षा न आये तो पहले चार द्रव्य है।
अज्ञानी आज 'केवलज्ञान नही है', 'मोक्ष नही है' ऐसी हीन-पुरुषार्थकी बातें करते है। ज्ञानीका वचन पुरुषार्थको प्रेरित करनेवाला होता है। अज्ञानी शिथिल है इसलिये ऐसे हीन पुरुषार्थके वचन कहता है । पचमकालकी, भवस्थितिकी, देहदुर्बलताकी या आयुकी बात कभी भी मनमे नही लानी चाहिये, और कैसे हो ऐसी वाणो भी नही सुननी चाहिये।
___ कोई होन-पुरुषार्थी बातें करे कि उपादानकारण-पुरुषार्थका क्या काम है ? पूर्वकालमे असोच्याकेवली हुए है । तो ऐसी बातोसे पुरुषार्थहीन न होना चाहिये।
सत्संग और सत्यसाधनके बिना किसी कालमे भी कल्याण नहीं होता। यदि अपने आप कल्याण होता हो तो मिट्टीमेसे घड़ा होना सम्भव है । लाख वर्ष हो जाये तो भी मिट्टीमेसे घडा स्वय नही होता, इसी तरह कल्याण नहीं होता।
तीर्थंकरका योग हुआ होगा ऐसा शास्त्रवचन है, फिर भी कल्याण नही हुआ, उसका कारण पुरुषार्थहीनता है। पूर्वकालमे ज्ञानी मिले थे फिर भी पुरुषार्थके बिना जैसे वह योग निष्फल गया, वैसे इस बार ज्ञानीका योग मिला है और पुरुषार्थ नही करेंगे तो यह योग भी निष्फल जायेगा। इसलिये पुरुषार्थ करें, और तो ही कल्याण होगा । उपादानकारण-पुरुषार्थ श्रेष्ठ है।
यो निश्चय करें कि सत्पुरुषके कारण-निमित्त-से अनंत जीव तर गये हैं। कारणके बिना कोई जीव नही तरता । असोज्याकेवलीको भी आगे पीछे वैसा योग प्राप्त हुआ होगा। सत्सगके विना सारा जगत डूब गया है।
___ मीराबाई महा भक्तिमान थी। वृदावनमे जीवा गोसाईके दर्शन करनेके लिये वे गयी, और पुछवाया, 'दर्शन करनेके लिये आऊँ ?' तव जोवा गोसाईने कहलवाया, 'मै स्त्रीका मुंह नहीं देखता।' तव मीराबाईने कहलाया, 'वृदावनमे रहते हुए भी आप पुरुष रहे है यह बहुत आश्चर्यकारक है । वृदावनमे रहकर मुझे भगवानके सिवाय अन्य पुरुषके दर्शन नहीं करने हैं। भगवानका भक्त है वह तो स्त्रीरूप है, गोपीरूप है। कामको मारनेके लिये उपाय करें, क्योकि लेते हुए भगवान, देते हुए भगवान, चलते हुए भगवान, सर्वत्र भगवान है।'
नाभा भगत था। किसीने चोरी करके चोरीका माल भगतके घरके आगे दवा दिया। इससे भगतपर चोरी का आरोप लगाकर कोतवाल पकडकर ले गया । कैदमे डालकर, चोरो मनाने के लिये रोज बहुत मार मारने लगा। परन्तु भला जीव, भगवानका भगत, इसलिये शातिसे सहन किया। गोसाईजीने आकर कहा 'मै विष्णु भक्त हूँ, चोरी किसी दूसरेने को है, ऐसा कह ।' तब भगतने कहा 'ऐसा कहकर छूटनेको अपेक्षा इस देहको मार पड़े यह क्या बुरा है ? मारता है तब मै तो भक्ति करता हूँ। भगवानके