________________
श्रीमद् राजचन्द्र
आपका हेतु ऐसा है कि वहाँ जायेंगे तो कुछ उपदेश सुनेंगे । परतु वहाँ कुछ उपदेश देनेका नियम नही है।' तब वह भाई पूछे, 'आपको उपदेश क्यो दिया ?" तो कहे 'मेरा प्रथम उनके समागममे जाना हुआ था और उस समय धर्मसवधी वचन सुने थे कि जिससे मुझे ऐसा विश्वास हुआ कि ये महात्मा हैं । यो पहचान होनेसे मैने उन्हे ही अपना सद्गुरु मान लिया है ।' तब वह यो कहे, 'उपदेश दें या न दें परंतु मुझे तो उनके दर्शन करने है ।' तब कहे, 'कदाचित्, उपदेश न दे तो आप विकल्प न करें।' ऐसा करते हुए भी जब वह आये तव तो हरीच्छा | परतु आप स्वय कुछ वैसी प्रेरणा न करें कि चलो, वहाँ तो बोध मिलेगा, उपदेश मिलेगा । ऐसी भावना न स्वय करे और न दूसरेको प्रेरणा करे।
काविठा, श्रावण वदी ३, १९५२ प्र०-केवलज्ञानीने जो सिद्धातोका निरूपण किया है वह 'पर-उपयोग' है या 'स्व-उपयोग' ? शास्त्र मे कहा है कि केवलज्ञानी स्व-उपयोगमे ही रहते हैं। ___उ०-तीर्थकर किसीको उपदेश दे तो इससे कुछ 'पर-उपयोग' नही कहा जाता । 'पर-उपयोग' उसे कहा जाता है कि जिस उपदेशको देते हुए रति, अरति, हर्ष और अहकार होते हो । ज्ञानीपुरुषको तो तादात्म्यसबध नही होता जिससे उपदेश देते हुए रति-अरति नही होते । रति-अरति हो तो 'पर-उपयोग' कहा जाता है । यदि ऐसा हो तो केवली लोकालोक जानते हैं, देखते है वह भी 'पर-उपयोग' कहा जायेगा। परतु ऐसा नहीं है, क्योकि उनमे रति-अरति भाव नही है।
सिद्धातकी रचनाके विषयमे यो समझें कि अपनी बद्धि न पहँचे तो इससे वे वचन असत् हैं, ऐसा न कहे, क्योकि जिसे आप असत् कहते हैं, उसी शास्त्रसे ही पहले तो आपने जीव, 'अजीव ऐसा कहना सीखा है, अर्थात् उन्ही शास्त्रोंके आधारसे ही आप जो कुछ जानते है उसे जाना है, तो फिर उसे असत् कहना, यह उपकारके बदले दोष करनेके बराबर है। फिर शास्त्रके लिखनेवाले भी विचारवान थे; इसलिये वे सिद्धातके बारेमे जानते थे । महावीरस्वामीके बहुत वर्षों के बाद सिद्धात लिखे गये हैं। इसलिये उन्हे असत कहना दोप गिना जायेगा।
1 । '. . । ___ अभी सिद्धातोकी जो रचना देखनेमे आती है, उन्ही अक्षरोमे अनुक्रमसे तीर्थकरने कहा हो यह वात नहीं है । परतु जैसे किसी समय किसीने वाचना, पृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा सबधी पूछा तो उस समय तत्सवधी बात कही। फिर किसीने पूछा कि धर्मकथा कितने प्रकारकी है तो कहा कि चार प्रकारकी-आक्षेपणी, विक्षेपणी, निर्वेदणी, सवेगणी । इस इस प्रकारकी बातें होती है उसे उनके पास जो गणधर होते हैं वे ध्यानमे रख लेते है, और अनुक्रमसे उसकी रचना करते है। जैसे यहाँ कोई बात करनेसे कोई ध्यानमे रखकर अनुक्रमसे उसकी रचना करता है वैसे । बाकी तीर्थकर जितना कहे उतना' कही उनके ध्यानमे नही रहता, अभिप्राय ध्यानमे रहता है। फिर गणधर भी बुद्धिमान थे, इसलिये उन तीर्थंकर द्वारा कहे हुए वाक्य कुछ उनमे नही आये, यह वात भी नहीं है।
सिद्धातोके नियम इतने अधिक सख्त हैं, फिर भी यति लोगोको उनसे विरुद्ध आचरण करते हुए देखते हैं । उदाहरणके लिये, कहा है कि साधको तेल नही डालना चाहिये, फिर भी वे डालते हैं। इससे कुछ ज्ञानीको वाणीका दोष नही है, परतु जीवको समझशक्तिका दोष है। जीवमे सद्बुद्धि न हो तो प्रत्यक्ष योगमे भी उसे उलटा हो प्रतीत होता है, आर जीवमे सद्बुद्धि हो तो सुलटा मालूम होता है।
ज्ञानोकी आज्ञासे चलनेवाले भद्रिक मुमुक्षुजीवको, यदि गुरुने ब्रह्मचर्यके पालने अर्थात् स्त्री आदिके प्रसगमे न जाने की आज्ञा की हो, तो उस वचनपर दृढ विश्वास कर वह उस उस स्थानमे नही जाता, तब जिसे मात्र आध्यात्मिक शास्त्र आदि पढकर मुमुक्षुता हुई हो, उसे ऐसा अहंकार रहा करता है, कि 'इसमे