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__, . . ... उपदश छाया
'काविठा, श्रावण वदी २, १९५२ .. स्त्री, पुत्र, परिग्रह आदि भावोके प्रति मूल ज्ञान होनेके बाद यदि ऐसी भावना रहे कि ''जब मैं चाहूँगा तब इन स्त्री आदिके प्रसगका त्याग कर सकूँगा' तो यह मूल ज्ञानसे वचित कर देनेकी बात समझें अर्थात् मूल ज्ञानमे यद्यपि भेद नही पडता परतु आवरणरूपं हो जाता है। तथा शिष्य आदि अथवा भक्ति करनेवाले मार्गसे च्युत हो जायेंगे अथवा रुक जायेंगे, ऐसी भावनासे यदि ज्ञानी पुरुष भी वर्तन करे तो ज्ञानीपुरुषको भी निरावरणज्ञान आवरणरूप हो जाता है, और इसीलिये वर्धमान आदि ज्ञानीपुरुष साढे बारह वर्ष तक अनिद्रित ही रहे, सर्वथा असगताको,ही उन्होने श्रेयस्कर समझा, एक शब्दके उच्चार करनेको भी यथार्थ नही माना, एकदम निरावरण, निर्योग, निर्भोग और निर्भय ज्ञान होनेके वाद उपदेशकार्य किया । इसलिये 'इसे इस तरह कहेगे तो ठोक है अथवा इसे इस तरह न कहा जाये तो मिथ्या है' इत्यादि विकल्प साधु-मुनि न करें। , . ___-निक्सपरिणाम अर्थात् आक्रोश परिणामपूर्वक घातकता करते हुए जिसमे चिंता अथवा भय और भवभीरता न हो वैसा परिणाम । ।
___ आधुनिक समयमे मनुष्योकी कुछ आयु बचपनमे जाती है, कुछ स्त्रीके पास जाती है, कुछ निद्रामे जाती है, कुछ धधेमे जाती है, और जो थोडी रहती है उसे कुगुरु लूट लेता है। तात्पर्य कि मनुष्यभव निरर्थक. चला जाता है।
- लोगोको कुछ झूठ बोलकर सद्गुरुके पास सत्सगमे आनेकी जरूरत नही है। लोग यो पूछे, 'कौन पधारे है ?' तो स्पष्ट कहे, 'मेरे परम कृपालु सद्गुरु पधारे है। उनके दर्शनके लिये जानेवाला हूँ।' तव कोई कहे, 'मै आपके साथ आऊँ ?' तब कहे, 'भाई, वे कुछ अभी उपदेश देनेका कार्य करते नहीं हैं। और
। १ स० १९५२ के श्रावण-भाद्रपद मासमें आणदके आसपास काविठा, राळज, वडवा आदि स्थलोमें श्रीमद का निवृत्तिके लिये रहना हुआ था। उस समय उनके समीपवासी भाई श्री अवालाल लालचदने प्रास्ताविक उपदेश अथवा विचारोका श्रवण किया था, जिसकी छाया मात्र उनको स्मृतिमें रह गयी थी उसके आनारसे उन्होने भिन्न भिन्न स्थलोमें उस छायाका सार सक्षेपमे लिख लिया था उसे यहां देते है।
एक मुमुक्षुभाईका यह कहना है कि श्री अवालालभाईने लिखे हुए इस उपदेशके भागको भी धीमी पवाया था और श्रीमद्ने उसमें कही कही सुधार किया था। . .