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उपदेश छाया भला क्या जीतना है ?', ऐसे पागलपनके कारण वह वैसे स्त्री आदिके प्रसगमे जाता है। कदाचित् उस प्रसगसे एक-दो बार बच भी जाये परन्तु बादमें उस पदार्थकी ओर दृष्टि करते हुए 'यह'ठीक है', ऐसे करते करते उसे उसमे आनद आने लगता है, और इससे स्त्रियोका सेवन करने लग जाता है। भोलाभाला जीव तो ज्ञानोकी आज्ञानुसार वर्तन करता है, अर्थात् वह दूसरे विकल्प न करते हुए वैसे प्रसगमे जाता हो नही । इस प्रकार, जिस जीवको, 'इस स्थानमे जाना योग्य नही' ऐसे ज्ञानीके वचनोका दृढ विश्वास है वह ब्रह्मचर्य व्रतमे रह सकता है;' अर्थात् वह इस अकार्यमें प्रवृत्त नही होता.। तो फिर जो ज्ञानीके आज्ञाकारी नही है ऐसे मात्र आध्यात्मिक शास्त्र पढकर होनेवाले मुमुक्षु अहकारमे फिरा करते है और माना करते हैं कि 'इसमे भला क्या जीतना है?' ऐसी मान्यताके कारण ये जीव पतित हो जाते है, और आगे नहीं बढ सकते । यह क्षेत्र है वह निवृत्तिवाला है, परन्तु जिसे निवृत्ति हुई हो उसे वैसा है। उसी तरह जो सच्चा ज्ञानी है, उसके सिवाय अन्य कोई अब्रह्मचर्यवश न हो,,यह तो कथन मात्र है.| और जिसे निवृत्ति नही हुई उसे प्रथम तो यो होता है कि यह क्षेत्र अच्छा है, यहाँ रहने जैसा है, परन्तु फिर यो करते करते विशेष प्रेरणा होनेसे क्षेत्राकारवृत्ति हो जाती है। ज्ञानीकी वृत्ति क्षेत्राकार नही होती, क्योकि क्षेत्र निवृत्तिवाला है, और स्वय भी निवृत्ति भावको प्राप्त हुए हैं, इसलिये दोनो योग अनुकूल है। शुष्कज्ञानियोको प्रथम तो यो अभिमान रहा करता है, कि 'इसमे भला क्या जीतना है?' परन्तु फिर धीरे धीरे वे स्त्री आदि पदार्थोमे फँस जाते है, जब कि सच्चे ज्ञानीको वैसा नही होता।
प्राप्त - ज्ञानप्राप्त पुरुषः । आप्त = विश्वास करने योग्य पुरुष । । मुमुक्षुमात्रको सम्यग्दृष्टि जीव नही समझना चाहिये। - - जीवको भुलावेके स्थान बहुत हैं, इसलिये विशेष-विशेष जागृति रखें, व्याकुल न हो, मदता न करे, और पुरुषार्थधर्मको वर्धमान करे। '
जीवको सत्पुरुषका योग मिलना दुर्लभ है। अपारमार्थिक गुरुको,, यदि अपना शिष्य दूसरे धर्ममे चला जाये तो बुखार चढ जाता है। पारमार्थिक गुरुको 'यह मेरा शिष्य है', ऐसा भाव नहीं होता। कोई कुगुरु-आश्रित जीव बोधश्रवणके लिये सद्गुरुके पास एक बार गया हो, और फिर वह अपने उस कुगरके पास जाये, तो वह कुगुरु उस जीवके मनपर अनेक विचित्र विकल्प अकित कर देता है कि जिससे वह जीव फिर सद्गुरुके पास न जायें। उस वेचारे जीवको तो सत्-असत् वाणीकी परीक्षा नहीं है, इसलिये वह धोखा खा जाता है, और सच्चे मार्गसे पतित हो जाता है।
र ३ काविठा (महुडी), श्रावण वदी ४, १९५२ - तीन प्रकारके ज्ञानीपुरुप हैं-प्रथम, मध्यम, और उत्कृष्ट । इस कालमे ज्ञानीपुरुषको परम दुर्लभता है, तथा आराधक जीव भी बहुत कम हैं।
पूर्वकालमे जीव आराधक और सस्कारी थे, तथारूप सत्सगका योग था, और सत्सगके माहात्म्यका विसर्जन नही हुआ था, अनुक्रमसे चला आता था, इसलिये उस कालमे उन सस्कारी जीवोको मत्युत्पकी पहचान हो जाती थी।
इस कालमे सत्पुरुपकी दुर्लभता है, बहुत कालसे सत्पुरुषका मार्ग, माहात्म्य और विनय क्षीणते हो गये हैं और पूर्वके आराधक जीव कम हो गये हैं, इसलिये जीवको सत्पुरुपको पहचान तत्काल नहीं होती । वहुतसे जीव तो सत्पुरुषका स्वरूप भी नही समझते । या तो छकायके रक्षक साधुको, या तो शास्त्र पढ़े हुएको, या तो किसी त्यागीको और या तो चतुरको तत्पुरुष मानते हैं, परन्तु यह यथार्य नही है।