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उपदेश नोंष
६८९ बाद अभ्याससे परमार्थसत्य बोला जा सकता है, और फिर विशेष अभ्याससे सहज उपयोग रहा करता है । असत्य बोले बिना माया नही हो सकती । विश्वासघात करना इसका भी असत्यमे समावेश होता है । झूठे दस्तावेज करना, इसे भी असत्य जाने । अनुभव करने योग्य पदार्थके स्वरूपका अनुभव किये बिना और इन्द्रिय द्वारा जानने योग्य पदार्थके स्वरूपको जाने बिना उपदेश करना, इसे भी असत्य समझें । - तो फिर तप इत्यादि मान आदिको भावनासे करके, आत्महितार्थ करने जैसा देखाव करना असत्य ही है, ऐसा समझें । अखड सम्यग्दर्शन प्राप्त हो तभी सम्पूर्णरूप से परमार्थसत्य वचन बोला जा सकता है; अर्थात् तभी आत्मामेसे अन्य पदार्थको भिन्नरूपसे उपयोगमे लेकर वचनकी प्रवृत्ति हो सकती है ।
कोई पूछे कि लोक शाश्वत है या अशाश्वत तो उपयोगपूर्वक न बोलते हुए 'लोक शाश्वत' है ऐसा' यदि कहे तो असत्य वचन बोला गया ऐसा होता है। उस वचनको बोलते हुए, लोक शाश्वत क्यो कहा गया, उसका कारण ध्यान मे रखकर वह बोले तो वह सत्य समझा जाता है ।
'इस' र्व्यवहार सत्यके भी दो प्रकार हो सकते हैं - एक सर्वथा व्यवहारसत्य और दूसरा देश व्यवहारसत्य ।
निश्चय सत्यपर उपयोग रखकर, प्रिय अर्थात् जो वचन अन्यको अथवा जिसके सवधमे बोला गया हो उसे प्रीतिकर हो, और पथ्य एव गुणकर हो, ऐसा ही सत्य वचन बोलनेवाले प्राय सर्वविरति मुनिराज हो सकते हैं ।'
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ससारपर अभाव रखनेवाला होनेपर भी पूर्वकर्मसे, अथवा दूसरे कारणसे ससारमे रहनेवाले गृहस्थको देशसे सत्यवचन बोलनेका नियम रखना योग्य है । वह मुख्यतः इस प्रकार है .
'कुन्यालीक, मनुष्यसंबधी असत्य, गवालीक, पशुसबधी असत्य, भौमालीक, भूमिसबधी असत्य, झूठी साक्षी, और याती असत्य अर्थात् विश्वाससे रखनेके लिये दिये हुए द्रव्यादि पदार्थ वापस मांगनेपर, उस सबंधी इनकार कर देना, 'ये पाँच स्थूल भेद है । इस सम्बन्ध॑मे॒ वचन बोलते हुए परमार्थं सत्य पर ध्यान रखकर, यथास्थित अर्थात् जिस प्रकारसे वस्तुओका सम्यक् स्वरूप हो उसी प्रकारसे ही कहनेका जो नियम है उसे देश से व्रत धारण करनेवालेको अवश्य करना योग्य है । इस कहे हुए सत्य सम्बन्धी उपदेशका विचार कर उस क्रममे अवश्य आना ही फलदायक है ।
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सेत्पुरुष अन्याय नही करते । सत्पुरुष अन्याय करेंगे तो इस जगतमे वर्षा किसके लिये बरसेगी ? सूर्य किसके लिये प्रकाशित होगा ? वायु किसके लिये चलेगी ?
आत्मा कैसा अपूर्व पदार्थ है । जब तक शरीरमे होता है--भले ही हजारों बरस रहे, शरीर नही सडता । आत्मा पारे जैसा है । चेतन चला जाये तो शरीर शब हो जाये और सडने लगे ! - जीवमे जागृति और पुरुषार्थ चाहिये । कर्मबन्ध हो जानेके बाद भी उसमेसे (सत्तामेसे उदय- आनेसे . पहले) छूटना हो तो अबाधाकाल पूर्ण होने तकमे छूटा जा सकता है ।
पुण्य, पाप और आयु, ये किसी दूसरेको नही दिये जा सकते। उन्हे प्रत्येक स्वय ही भोगता है । स्वच्छदसे, स्वमतिकल्पनासे और सदगुरुकी आज्ञा के बिना ध्यान करना यह तरगरूप है और उपदेश, व्याख्यान करना यह अभिमानरूप है ।
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हा आत्मा पथिक है और देह वृक्ष है । इस देहरूपी वृक्षमे (वृक्षके नीचे) जीवरूपी पथिकबटोही विश्राति लेने बैठा है । वह पथिक वृक्षको ही अपना मानने लगे यह कैसे चलेगा ?