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श्रीमद् राजचन्द्र
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बंबई, जेठ सुदी ११, १९५५ महात्मा मुनिवरोको परमभक्तिसे नमस्कार हो ।
•जेनो काळ ते किंकर थई रह्यो, मृगतृष्णाजळ त्रैलोक । जीव्यु धन्य तेहर्नु । वासी आशा पिशाची थई रही, काम क्रोध ते केदी लोक । जीव्यू० खाता पीता बोलतां नित्ये, छे निरंजन निराकार । जीव्युं० जाणे संत सलूणा तेहने, जेने होय छेल्लो अवतार । जीव्युं० जगपावनकर ते अवतर्या, अन्य मात उदरनो भार । जीव्यं० तेने चौद लोकमां विचरतां, अतराय कोईये नव थाय । जीव्यु०
ऋद्धि सिद्धि ते दासीओ थई रही, ब्रह्म आनंद हृदे न समाय । जीव्युं० यदि मुनि अध्ययन करते हो तो 'योगप्रदीप' श्रवण करें। 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' का योग आपको बहुत करके प्राप्त होगा।
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बंबई, जेठ वदी २, रवि, १९५५
'जिस विषयको चर्चा हो रही है वह ज्ञात है । उस विषयमे यथावसरोदय ।
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बंबई, जेठ वदी ७, शुक्र, १९५५ 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' की पुस्तक चार दिन पूर्व प्राप्त हुई तथा एक पत्र प्राप्त हुआ। ..
व्यवहार प्रतिबधसे विक्षिप्त न होते हुए धैर्य रखकर उत्साहयुक्त वीर्यसे स्वरूपनिष्ठ वृत्ति करनी योग्य है।
८७९ मोहमयी, आषाढ़ सुदी ८, रवि, १९५५
'क्रियाकोष' इससे सरल और कोई नही है। विशेष अवलोकन करनेसे स्पष्टार्थ होगा।
शुद्धात्मस्थितिके पारमार्थिक श्रुत और इद्रियजय दो मुख्य अवलबन हैं। सुदृढ़तासे उपासना करनेसे वे सिद्ध होते है । हे आर्य | निराशाके समय महात्मा पुरुषोका अद्भुत आचरण याद करना योग्य है । उल्लसित वीर्यवान परमतत्त्वकी उपासना करनेका मुख्य अधिकारी है।
शातिः
*भावार्थ-जिसका काल किंकर हो गया है, और जिसे त्रिलोक मृगतृष्णाके जलके समान मालूम होता है, उसका जीना धन्य है। जिसकी आशारूपी पिशाचिनो दासी है, और काम क्रोध जिसके कैदी हैं, जो यद्यपि खाता, पीता और वोलता हुआ दीखता है, परन्तु वह नित्य निरजन और निराकार है । उसे सलोना सत जाने और उसका यह अन्तिम भव है, उसने जगतको पावन करनेके लिये अवतार लिया है, वाकी तो सब माताके उदरमें भारभूत ही है, उसे चौदह राजलोकमें विचरते हुए किसीसे भी अन्तराय नही होता, उसकी ऋद्धि-सिद्धि सब दासियां हो गयी है, और उसके हृदयमें ब्रह्मानन्द नहीं समाता।
१. श्री आचारागसूत्रके एक वाफ्यसम्बन्धी । देखें आक ८६९ ।