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श्रीमद राजचन्द्र
रोक्या शब्दादिक विषय, सयम साधन राग । जगत इष्ट नहि आत्मयी, मध्य पात्र महाभाग्य ॥१०॥ नहि तृष्णा जीव्यातणी, मरण योग नहि क्षोभ । महापात्र ते मार्गना, परम योग जितलोभ ॥११॥ आव्ये बहु समदेशमां, छाया जाय समाई | आव्ये ते स्वभावमां, मन स्वरूप पण जाई ॥ १ ॥ ऊपजे मोह विकल्पथी, समस्त आ संसार । अन्तर्मुख अवलोकतां, विलय थतां नहि वार ॥ २ ॥
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सुखधाम अनंत सुसंत चही, दिन रात्र रहे तद्ध्यानमहीं । परशाति अनत सुधामय जे, प्रणम् पद ते वर ते जय ते ॥१॥
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मोरबी, चैत्र सुदी ११॥, सोम, १९५७
यद्यपि बहुत ही धीमा सुधार होता हो ऐसा लगता है, तथापि अब शरीर स्थिति ठीक है । कोई रोग हो ऐसा नही लगता। सभी डाक्टरोका भी यही अभिप्राय है। निर्बलता बहुत है। वह कम हो ऐसे उपायो या कारणोकी अनुकूलता की आवश्यकता है। अभी वैसी कुछ भी अनुकूलता मालूम होती है । कल या परसोंसे यहाँ एक सप्ताह के लिये धारशीभाई रहनेवाले हैं । इसलिये अभी तो सहजतासे आपका आगमन न हो तो भी अनुकूलता है । मनसुख प्रसगोपात्त घबरा जाता है और दूसरोको घबरा देता है । वैसी कभी शरीर स्थिति भी होती है । जरूर जैसा होगा तो मैं आपको बुला लूँगा । अभी आप आना स्थगित रखे । शात मनसे काम करते जायें । यही विनती । शांतिः
_*४४२-१
बंबई, चैत्र वदो ७, १९४९ चित्तमे आप परमार्थकी इच्छा रखते हैं ऐसा है, तथापि उस परमार्थप्राप्तिको अत्यन्तरूपसे बाधा करनेवाले जो दोष हैं उनमे, अज्ञान, क्रोध, मान आदिके कारणसे उदास नही हो सकते अथवा उनके अमुक सम्बन्धमे रुचि रहती है और उन्हे परमार्थप्राप्तिमे बाधक कारण जानकर अवश्य सर्पके विषकी भांति छोडना योग्य है । किसीका दोष देखना उचित नही है, सभी प्रकारसे जीवको अपने ही दोषका विचार करना योग्य है, ऐसी भावना अत्यन्तरूपसे दृढ करने योग्य है । जगतदृष्टिसे कल्याण असभवित जानकर यह कही हुई बात ध्यानमे लेने योग्य है यह विचार रखें ।
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(२) जिस तरह जब सूर्य मध्याह्नमें मध्यमें - बहुत समप्रदेशमें आता है तब पदार्थोंको छाया उन्होनें समा जाती है, उसी तरह आत्मस्वभावमें आने पर मनका लय हो जाता है ॥१॥ यह समस्त ससार मोहविकल्पसे उत्पन्न होता है । अन्तर्मुख वृत्ति से देखने से इसका नाश होनेमें देर नही लगती ॥२॥
(३) जो अनन्त सुखका धाम है, जिसे सन्तजन चाहते हैं, जिसके ध्यानमें वे दिनरात लीन रहते हैं, जो परम शाति और अनन्त सुधासे परिपूर्ण है उस पदको मैं प्रणाम करता हूँ, वह श्रेष्ठ है, उसकी जय हो ॥१॥
* यह पत्र पुरानी आवृत्तियोमें नही है । फिर भी 'तत्त्वज्ञान' की आवृत्तियोंमें प्रकाशित हुआ है, अत मितीके अनुसार यह आक ४४२ के बाद रखने योग्य है । परन्तु वहाँ छूट जानेसे यहाँ आक ४४२-१ के रूपमें रखा है ।