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श्रीमद् राजचन्द्र इसके छपनेमे विलम्ब होनेसे ग्राहकोकी आकुलता दूर करनेके लिये तत्पश्चात् 'भावनाबोध रचकर उपहाररूपमे ग्राहकोको दिया था।
"हुं कोण छ ? क्यांथो थयो ? शं स्वरूप छे मारुखरु ?
कोना सबंधे वळगणा छ ? राखं के ए परिहरु ? इसपर जीव विचार करे तो उसे नवों तत्त्वका, तत्त्वज्ञानका सम्पूर्ण बोध हो जाय ऐसा है । इसमे तत्त्वज्ञानका सम्पूर्ण समावेश हो जाता है । इसका शातिपूर्वक और विवेकसे विचार करना चाहिये ।
अधिक और लम्बे लेखोंसे कुछ ज्ञानकी, विद्वत्ताकी तुलना नही होती. परन्तु सामान्यत. जीवोको इस तुलनाकी समझ नही हैं।
प्र०-किरतचंदभाई जिनालयमे पूजा करने जाते हैं ? उ०-ना साहिब, समय नहीं मिलता।
समय क्यों नही मिलता ? चाहे तो समय मिल सकता है, प्रमाद बाधक है। हो सके तो पूजा करने जाना।
___ काव्य, साहित्य या सगीत आदि कला यदि आत्मार्थके लिये न हो तो वे कल्पित हैं । कल्पित अर्थात् निरर्थक, सार्थक नहीं-जीवकी कल्पना मात्र है। जो भक्तिप्रयोजनरूप या आत्मार्थके लिये न हो वह सब कल्पित ही है।
मोरवी, चैत्र वदी १२, १९५५ श्रीमद् आनदघनजी श्री अजितनाथके स्तवनमे स्तुति करते है :
'तरतम योगे रे तरतम वासना रे, वासित बोध आधार-पथडो०' इसका क्या अर्थ है ? ज्यो ज्यो योगको-मन, वचन और कायाकी तरतमता अर्थात् अधिकता त्यो त्यो वासनाकी भी अधिक्ता, ऐसा 'तरतम योगे रे तरतम वासना रे' का अर्थ होता है। अर्थात् यदि कोई वलवान योगवाला पुरुष हो, उसके मनोवल, वचनवल आदि बलवान हो, और वह पथका प्रवर्तन करता हो, परतु जैसा उसका बलवान मन, वचन आदि योग है, वैसी ही फिर मनवानेकी, पूजा करानेकी, मान, सत्कार, अर्थ, वैभव आदिकी वलवान वासना हो तो वैसी वासनावालेका बोध वासनासहित बोध हुआ, कषाययुक्त बोध हुआ, विषयादिकी लालसावाला बोध हुआ, मानार्थ बोध हुआ, आत्मार्थ बोध न हुआ | श्री आनदघनजी श्री अजित प्रभुका स्तवन करते हैं-'हे प्रभो । ऐसा वासनासहित बोध आधाररूप है, वह मुझे नही चाहिये । मुझे तो कषायरहित, आत्मार्थसपन्न, मान आदि वासनारहित बोध चाहिये ऐसे पंथकी गवेषणा मैं कर रहा हूँ। मनवचनादि बलवान योगवाले भिन्न भिन्न पुरुष बोधका प्ररूपण करते आये हैं, प्ररूपण करते हैं, परतु हे प्रभो । वासनाके कारण वह बोध वासित है, मुझे तो वासनारहित वोधकी जरूरत है। वह तो, हे वासना, विषय, कषाय आदि जीतनेवाले जिन वीतराग अजित देव । तेरा है । उस तेरे पथको मैं खोज रहा हूँ-देख रहा हूँ। वह आधार मुझे चाहिये। क्योकि प्रगट सत्यसे धर्मप्राप्ति होती है।'
___ आनदघनजीकी चोवीसी मुखाग्र करने योग्य है। उसका अर्थ विवेचनपूर्वक लिखने योग्य है। वैसा करें।
मोरवी, चैत्र वदी १४, १९५५ प्र०-आप जेसे समर्थ पुरुषसे लोकोपकार हो ऐसी इच्छा रहे यह स्वाभाविक है। उ०-लोकानुग्रह अच्छा और आवश्यक अथवा आत्महित ? १ देखें मोक्षमाला पाठ ६७। २. श्रीमद्जीने पूछा। ३ श्री मनसुखभाईका प्रत्युत्तर।