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श्रीमद् राजचन्द्र
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फैला दिया है । उसमे से जीव-अजीवका, जड- चैतन्यका भेद करना यह विकट हो- पडा है ।, भ्रमजाल यथार्थरूपसे ध्यानमे आये, तो जड- चैतन्य क्षीर नीरवत् भिन्न स्पष्ट भासित होता है ।
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बबई, कार्तिक वदी १२, १९५६
'इनॉक्युलेशन' – महामारीका टीका | टीकेके नामसे डाक्टरोने यह पाखण्ड खडा किया है । बेचारे निरपराध अश्व आदिको टीकेके बहाने दारुण, दुख देकर मार डालते है, हिंसा करके पापका पोषण करते है, पाप कमाते है। पहले पापानुवधी पुण्य उपार्जन किया है, उसके प्रभावसे वर्तमानमे वे पुण्य भोगते हैं, परन्तु परिणाममे पाप मोल लेते हैं, यह उन बेचारे डाक्टरोकों पता नही है ।" टीकेसे रोग दूर हो तबकी बात तब, परन्तु अभी तो हिंसा प्रत्यक्ष है । टीकेसे एक रोगको निकालते दूसरा रोग भो खडा हो जाये ।'
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aas, कार्तिक वदी १२, १९५६
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. .. प्रारब्ध और पुरुषार्थं ये शब्द समझने योग्य हैं । पुरुषार्थ किये बिना प्रारब्धकी खबर नही पड़ सकतो । प्रारब्धमे होगा सो होगा यो कहकर बैठे रहने से काम नही चलता । निष्काम पुरुषार्थ करना चाहिये । प्रारब्धका समपरिणामसे वेदन करना - भोग लेना, यह महान पुरुषार्थ है । सामान्य जीव समपरिणामसे विकल्परहित होकर प्रारब्धका वेदन नही कर सकता, विषम परिणाम होता ही है । इसलिये उसे न होने देनेके लिये, कम होनेके लिये उद्यम करना चाहिये । समता और निर्विकल्पता सत्सगसे आती है और बढती है ।
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, मोरबी, वैशाख सुदी ८, १९५६ 'भगवद्गीता' मे पूर्वापर विरोध हैं, उसे देखनेके लिये उसे दे रखा है । पूर्वापर विरोध क्या है यह अवलोकन करनेसे मालूम हो जायेगा । पूर्वापर अविरोधी दर्शन एवं वचन तो वीतराग के है ।
भगवद्गीतापर बहुतसे भाष्य और टीकाएँ रचे गये हैं- विद्यारण्यस्वामीकी 'ज्ञानेश्वरी' आदि । प्रत्येकने अपनी मान्यताके अनुसार टीका बनायी है। थियॉसॉफीवालो टीका जो आपको दी है वह अधिकाश स्पष्ट है | मणिलाल नभुभाईने गीतापर विवेचनरूप टीका करते हुए बहुत मिश्रता ला दी है, मिश्रित खिचड़ी बना दी है ।
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विद्वत्ता और ज्ञान इन दोनोको एक न समझें, दोनो एक नही हैं । विद्वत्ता हो, फिर भी ज्ञान न हो । सच्ची विद्वत्ता तो यह है कि जो आत्मार्थके लिये हो, जिससे आत्मार्थ सिद्ध हो, आत्मत्व समझ J,
- आये, प्राप्त किया जाये ।, जहाँ आत्मार्थ होता है वहाँ ज्ञान होता है, विद्वत्ता हो या न भी हो ।
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मणिभाई कहते हैं (षड्दर्शनसमुच्चयकी प्रस्तावनामे ) कि हरिभद्रसूरिको वेदातका ज्ञान न था, वेदातका ज्ञान होता तो ऐसी कुशाग्र बुद्धिवाले हरिभद्रसूरि जैनदर्शनकी ओरसे अपनी वृत्तिको फिराकर वेदात हो जाते । मणिभाई के ये वचन गाढ मताभिनिवेशसे निकले हैं । हरिभद्रसूरिको वेदातका ज्ञान था या नही, इस बातको, मणिभाईने यदि हरिभद्रसूरिकी 'धर्मसग्रहणी' देखी होती, तो उन्हे खबर पड जाती। हरिभद्रसूरिको वात आदि सभी दर्शनोका ज्ञान था । उन सब दर्शनोकी पर्यालोचनापूर्वक उन्होने जैनदर्शनको पूर्वापर अविरुद्ध प्रतीत किया था । यह अवलोकनसे मालूम होगा । ' षड्दर्शनसमुच्चय' के भाषांतरमे दोष होनेपर भी मणिभाईने भाषातर ठीक किया है। अन्य ऐसा भी नही कर सकते । यह सुधारा जा सकेगा ।
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श्री मोरबी, वैशाख सुदी ९, १९५६ वर्तमानकालमे क्षयरोगको विशेष वृद्धि हुई है और हो रही है । इसका मुख्य कारण ब्रह्मचर्यकी कमो, आलस्य और विषय आदिकी आसक्ति है । क्षयरोगका मुख्य उपाय ब्रह्मचर्य सेवन, शुद्ध सात्त्विक आहार -पान और नियमित वर्तन है ।