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उपदेश नोध...
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गत रात्रिमे श्री आनन्दघनजीके, सद्देवतत्त्वका निरूपण करनेवाले श्री मल्लिनाथके स्तवनको चर्चा हो रही थी, उस समय बीचमे आपने प्रश्न किया था इस बारेमे हम सकारण मौन रहे थें । आपका प्रश्न संगत और अनुसंधिवाला था । परन्तु वह सभी श्रोताओको ग्राह्य हो सके ऐसा न था, और किसी के. समझमे न आनेसे विकल्प उत्पन्न करनेवाला था। चलते हुए विषयमे श्रोताओका श्रवणसूत्र टूट जाये, ऐसा था । और आपको स्वयमेव स्पष्टता हो गयी है । अब पूछना है ? -
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लोग एक कार्यकी तथा उसके कर्ताको प्रशसा करते है यह ठीक है यह उस कार्यका पोषक तथा उसके कर्त्ताके उत्साहको बढानेवाला है । परन्तु साथ ही उस कार्यमे जो कमी हो उसे भी, विवेक और निरभिमानतासे सभ्यतापूर्वक बताना चाहिये, कि जिससे फिर त्रुटिका अवकाश न रहे और वह कार्य, त्रुटिरहित होकर पूर्ण हो जाये । अकेली प्रशसा गुणगान से सिद्धि नही होती। इससे तो उलटा मिथ्याभिमान बढता है। आजके मानपत्र आदिमे यह प्रथा विशेष है। विवेक चाहिये ! 1
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म०—साहब | चन्द्रसूरि आपको याद करके पूछा करते थे । आप, यहाँ हैं, यह उन्हे मालूम नही था । आपसे मिलनेके लिये आये है ।
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201 श्रीमंद - परिग्रहधारी यतियोका सन्मान करने से मिथ्यात्वको पोषण मिलता है, मार्गका विरोध होता है । दाक्षिण्य सभ्यताको भी निभाना चाहिये । चन्द्रसूरि हमारे लिये आये है । परन्तु जीवको छोडना अच्छा नही लगता, मिथ्या चतुराईकी बातें करती है, मान छोड़ना रुचता नही । उससे आत्मार्थ सिद्ध नही होता ! हमारे लिये आये, इसलिये सभ्यता, धर्म को निभानेके लिये हम उनके पास गये । प्रतिपक्षी स्थानक - सम्प्रदायवाले कहेंगे कि इन्हे इनपर राग है, इसलिये वहाँ गये, हमारे पास नही आते । परन्तु जीव हेतु एव कारणका विचार नही करता । मिथ्या दूषण, खाली आरोप लगानेके लिये तैयार है । ऐसे वर्तनके जानेपर छुटकारा है । भवपरिपाकसे सद्विचार स्फुरित होता है और हेतु एव परमार्थका विचार उदित होता है ।
बडे जसे कहे वैसे करना, जैसे करें वैसे नही करना चाहिये । -
श्री कबीरका अन्तर, समझे, बिना भोलेपनसे- लोग, उन्हे परेशान करने लगे । - इस विक्षेपको दूर करनेके लिये कबीरजी वेश्याके यहाँ जाकर बैठ गये । लोकसमूह वापिस लौटा -1 कबीरजी भ्रष्ट हो गये ऐसा लोग कहने लगे। सच्चे भक्त थोडे थे कवीरको चिपके रहे । कबीरजीका विक्षेप तो दूर हुआ, परन्तु दूसरोको उनका अनुकरण नही करना चाहिये ।
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नरसिंह मेहता गा गये है-,
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*मारुगायुगाशे ते झझा गोदा खाशे । समझीने गाशे ते वहेलो वैकुण्ठ जाशे ॥
तात्पर्य यह कि समझकर विवेकपूर्वक करना है । अपनी दशाके बिना, जीव अनुकरण करने लगे तो मार खाकर ही रहेगा । इसलिये बड़े कहे वैसे चाहिये। यह वचन सापेक्ष हे ।
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विवेकके बिना, समझे बिना करना, करे वैसा नही करना
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(दूसरे भोईवाडे श्री शातिनाथजीके दिगवरी-मदिरमे दर्शन-प्रसगका वर्णन ) प्रतिमाको देखकर दूरसे वन्दन किया ।
बम्बई, कार्तिक वदी ९, १९५६
तीन बार पचाग प्रणाम किया ।
श्री आनदघनजीका श्री पद्मप्रभुका स्तवन सुमधुर, गभीर और सुस्पष्ट ध्वनिसे गाया ।
* भावार्थ - विना समझे मेरा कहा करंगा वह मार ही खायेगा । नमझकर जो मेरा अनुकरण करेगा वह जल्दी वैकुण्ठमे जायेगा ।