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३४ बों वर्ष
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राजकोट, चैत्र सुदी ९, १९५७
श्री जिन परमात्मने नमः *(१) इच्छे छे जे जोगी जन, अनत सुखस्वरूप ।
मूळ शुद्ध ते आत्मपद, सयोगी जिनस्वरूप ॥१॥ आत्मस्वभाव अगम्य ते, अवलंबन आधार । जिनपदथी दर्शावियो, तेह स्वरूप प्रकार ॥२॥ जिनपद निजपद एकता, भेदभाव नहि काई। लक्ष थदाने तेहनो, कह्यां शास्त्र सुखदाई ॥३॥ जिन प्रवचन दुर्गम्यता, थाके अति मतिमान । अवलंबन श्री सद्गुरु, सुगम अने सुखखाण ॥४॥ उपासना जिनचरणनी, अतिशय भक्तिसहित । मुनिजन संगति रति अति, संयम योग घटित ॥५॥ गुणप्रमोद अतिशय रहे, रहे अन्तर्मुख योग। प्राप्ति श्री सद्गुरु वडे, जिन दर्शन अनुयोग ॥६॥ प्रवचन समुद्र बिंदुमां, ऊलटी' आवे एम। पूर्व चौदनी लब्धिमुं, उदाहरण पण तेम ॥७॥ विषय विकार सहित जे, रह्या मतिना योग। परिणामनी विषमता, तेने योग अयोग ॥८॥ मंद विषय ने सरळता, सह आज्ञा सुविचार । करुणा कोमळतादि गुण, प्रथम भूमिका धार ॥९॥
*(१) भावार्थ-योगीजन जिस अनंत सुखकी इच्छा करते हैं वह मूल शुद्ध आत्मस्वरूप सयोगी जिनस्वरूप है ।।१।। वह आत्मस्वभाव अरूपी होनेसे समझना मश्किल है इसलिये देहधारी जिनभगवानके अवलवनके आधारसे उसे समझाया है ॥२॥ मूल स्वरूपकी दृष्टिसे जिनस्वरूप और निजस्वरूप एक है-इनमें कोई भेदभाव नही है। इसका लक्ष्य होनेके लिये सुखदायी शास्त्र रचे गये है ॥३॥ जिनप्रवचन दुर्गम्य है, अति मतिमान पडित भी उसका मर्म पानेमें थक जाते हैं । वह श्री सद्गुरुके अवलबनसे सुगम एव सुखनिधि सिद्ध होता है ॥४॥ यदि जिनचरणको अतिशय भक्तिसहित उपासना हो, मुनिजनोकी सगतिमे अति रति हो, मन वचनकायाकी शक्तिके अनुसार सयम हो, गुणोके प्रति अतिशय प्रमोदभावना रहे, और मन, वचन एव कायाका योग अन्तर्मुख रहे, तो श्री सद्गुरुकी कृपासे चार अनुयोग गर्भित जिनसिद्धातका रहस्य प्राप्त होता है ॥५-६।। समुद्र के एक बिंदुमें समुद्रके क्षार आदि समस्त गुण आ जाते है उसी प्रकार प्रवचनसमुद्रके एक वचनरूप बिंदुमें चौदह पूर्व आ जाय ऐसी लव्यि जीवको सद्गुरुके योगसे प्राप्त होती है ॥७॥ जिसकी मति विषयविकार सहित है और इससे जिसके परिणाममें विषमता है, उसे सद्गुरुका योग भी अयोग होता है अर्थात् निष्फल जाता है ||८| विषयासक्तिकी मदता, सरलता, सद्गुरु आशापूर्वक सुविचार, करुणा, कोमलता आदि गुण रखनेवाले जीव आत्मप्राप्तिकी प्रथम भूमिकाके योग्य है ।।९।। जिन्होने शब्दादि विषयोका निरोध किया है, जिन्हें सयमके साधनोमे प्रीति है, जिन्हें आत्माके सिवाय जगतका कोई जीव इष्ट (प्रिय) नही है, वे महाभाग्य जोव मध्यम पात्र है अर्थात् आत्मप्राप्तिकी मध्यम भूमिकाके योग्य है ॥१०॥ जिन्हें जीनेको तृष्णा नही है और मरणका क्षोभ (भय) नहीं है, जिन्होंने लोभ आदि कषायोको जीत लिया है और जिनपा मोक्ष उपायमें प्रवर्तन है, वे आत्मप्राप्तिके मार्गक महा (उत्कृष्ट) पार है ।।११।। १. पाठान्तर 'उल्लखी'