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३४ वाँ वर्ष
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वढवाण केम्प, कार्तिक सुदी ५, रवि, १९५७
वर्तमान दुषमकाल है। मनुष्योके मन भी दुषम ही देखनेमे आते है। बहुत करके परमार्थसे शुष्क अतःकरणवाले परमार्थका दिखाव करके स्वेच्छासे चलते हैं ।
ऐसे समयमे किसका सग करना, किसके साथ कितना सम्बन्ध रखना, किसके साथ कितना बोलना, और किसके साथ अपने कितने कार्य-व्यवहारका स्वरूप विदित किया जा सके, ये सब ध्यानमे रखनेका समय है । नही तो सद्वृत्तिमान जीवको ये सब कारण हानिकर्ता होते हैं। इसका आभास तो आपको भी अब ध्यानमे आता होगा ।
शातिः
९४८ बम्बई, शिव, मगसिर वदी ८, १९५७ मदनरेखाका अधिकार, 'उत्तराध्ययन'के नौवें अध्ययनमे नमिराज ऋषिका चरित्र दिया है, उसकी टीकामे है। ऋषिभद्र पुत्रका अधिकार 'भगवतोसूत्र'के " 'शतकके उद्देशमे आया है। ये दोनो अधिकार अथवा दूसरे वैसे बहुतसे अधिकार आत्मोपकारी पुरुषके प्रति वन्दन आदि भक्तिका निरूपण करते हैं । परन्तु जनमडलके कल्याणका विचार करते हुए वैसे विषयकी चर्चा करनेसे आपको दूर रहना योग्य है । अवसर भी वैसा ही है । इसलिये आप इन अधिकार आदिकी चर्चा करनेमे एकदम शात रहे। परन्तु दूसरी तरहसे उन लोगोकी आपके प्रति उत्तम मनोभाववृत्ति किंवा भावना हो ऐसा आप वर्तन करे, कि जिससे पूर्वापर बहुतसे जीवोंके हितका ही हेतु हो।
___जहाँ परमार्थके जिज्ञासु पुरुषोंका मंडल हो वहाँ शास्त्रप्रमाण आदिकी चर्चा करना योग्य है, नही तो बहुत करके उससे श्रेय नही होता। यह मात्र छोटा परिषह है। योग्य उपायसे प्रवृत्ति करें, परन्तु उद्वेगवाला चित्त न रखे।
९४९ तिथ्थल वलसाड, पौष वदी १०, मगल, १९५७
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भाई मनसुखकी पत्नीके स्वर्गवास होनेका समाचार जानकर आपने दिलासाभरित पत्र लिखा. वह मिला।
१. शतक ११, उद्देश १२ ।