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श्रीमद् राजचन्द्र
एवो जे अनादि एकरूपनो मिथ्यात्वभाव,
ज्ञानीनां वचन वडे दूर थई जाय छे; . भासे जड चैतन्यनो प्रगट स्वभाव भिन्न,
बन्ने द्रव्य निज निज रूपे स्थित थाय छे ॥२॥ , . , ..
___९०३ बबई, कार्तिक वदी ११, मंगल, १९५६ प्राणीमात्रका रक्षक, बाधव और हितकारी, यदि ऐसा कोई उपाय हो तो वह वीतरागका धर्म 'ही है। ''
९०४ बबई, कार्तिक वदी ११, मंगल, १९५६ सतजनो जितवरेंद्रोने लोक आदिका जो स्वरूप निरूपण किया है, वह आलंकारिक भाषामे निरूपण है, जो पूर्ण योगाभ्यासके बिना ज्ञानगोचर होने योग्य नही है। इसलिये आप अपने अपूर्ण ज्ञानके आधारसे वीतरागके वाक्योका विरोध न करें; परतु' योगका अभ्यास करके पूर्णतासे उस स्वरूपके ज्ञाता होवें।
९०५ मोहमयी क्षेत्र, पौष वदी १२, रवि, १९५६ महात्मा मुनिवरोके चरणकी, सगकी उपासना और सत्शास्त्रका अध्ययन मुमुक्षुओके लिये आत्मबलकी वृद्धिके सदुपाय हैं ।
ज्यो ज्यो इद्रियनिग्रह, ज्यो ज्यो निवृत्तियोग होता है त्यो त्यो वह सत्समागम और सत्शास्त्र अधिकाधिक उपकारी होते हैं।
ॐ शाति. शाति. शातिः ___ ।
९०६ - बंबई, माघ वदी १०, शनि, १९५६ आज आपका पत्र मिला । बहन इच्छाके वरकी अकाल मृत्युके खेदकारक समाचार जानकर बहुत -शोक होता है। संसारकी ऐसी अनित्यताके कारण ही ज्ञानियोने वैराग्यका उपदेश दिया है |- - -
घटना अत्यत दुखकारक है । परतु निरपाय होनेसे धीरज रखनी चाहिये। तो आप मेरी ओरसे बहन इच्छाको और घरके लोगोको दिलासा और धीरज दिलायें । और बहनका मन शात हो वैसे उसकी संभाल लें।'
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९०७ ।।"
'मोहमयी, माघ वदी ११, १९५६
___शुद्ध गुर्जर भाषामे 'समयसार'को प्रति की जा सके तो वैसा करनेसे अधिक उपकार हो सकता है। यदि वैसा न हो सके तो वर्तमान प्रतिके अनुसार दूसरी प्रति लिखनेमे अप्रतिबध है।
.। । - . . ९०८ । बबई, माघ वदी १४, मंगल, १९५६ - बताते हुए अतिशय खेद होता है कि सुज्ञ भाई श्री कल्याणजीभाई (केशवजी) ने आज दोपहरमे लंगभग पद्रह दिनकी मरोड़की तकलीफसे नामधारी देहपर्यायको छोडा है।