________________
६६६
श्रीमद् राजचन्द्र - शरीरमे असाता मुख्यतः उदयमान है । तो भी अभी स्थिति सुधारपर मालूम होती है ।
आषाढ पूर्णिमापर्यतके चातुर्मास सबंधी आपश्रीके प्रति जो कुछ अपराध हुआ हो उसके लिये नम्रतासे क्षमा मांगता हूँ।
गच्छवासीको भी इस वर्ष क्षमापत्र लिखनेमे प्रतिकूलता नही लगती। पद्मनदी, गोम्मटसार, आत्मानुशासन, समयसारमूल इत्यादि परम शात श्रुतका अध्ययन होता होगा। आत्माका शुद्ध स्वरूप याद करते हैं।
ॐ शातिः ९४१ मोरबी, श्रावण वदी ४, मंगल, १९५६
20
सस्कृत-अभ्यासके योगके विषयमे लिखा, परंतु जब तक आत्मा सुदृढ प्रतिज्ञासे वर्तन न करे तव तक आज्ञा करना भयंकर है।
जिन नियमोमे अतिचार आदि प्राप्त हुए हो, उनका यथाविधि कृपालु मुनियोंसे प्रायश्चित्त ग्रहण करके आत्मशुद्धता करना योग्य है, नही तो भयकर तीव्र बंधका हेतु है। नियममे स्वेच्छाचारसे प्रवर्तन • करनेकी अपेक्षा मरण श्रेयस्कर है, ऐसी महापुरुषोकी आज्ञाका कुछ विचार नही रखा, ऐसा प्रमाद आत्माके लिये भयकर क्यो न हो ?
मुमुक्षु उमेद आदिको यथायोग्य ।
९४२
मोरबी, श्रावण वदी ५, बुध, १९५६
यदि कदाचित् निवृत्तिमुख्य स्थलकी स्थितिके उदयका अंतराय प्राप्त हुआ हो तो हे आर्य | आप श्रावण वदी ११ से भाद्रपद सुदी पूर्णिमापर्यंत सदा सविनय ऐसी परम निवृत्तिका इस तरह सेवन कीजिये कि समागमवासी मुमुक्षुओंके लिये आप विशेष उपकारक हो जायें और वे सब निवृत्तिभूत सनियमोका सेवन करते हुए सत्शास्त्रके अध्ययन आदिमे एकाग्र हो, यथाशक्ति व्रत, नियम और गुणको ग्रहण करें।
शरीरस्थितिमे सबल असाताके उदयमे यदि निवृत्तिमुख्य स्थलका अतराय मालूम होगा तो यहाँसे आपके अध्ययन, मनन आदिके लिये प्रायः 'योगशास्त्र' पुस्तक भेजेंगे, जिसके चार प्रकाश दूसरे मुमुक्षुभाइयोको भी श्रवण करानेसे परम लाभका सभव है।
हे आर्य ! अल्पायुषी दुषमकालमे प्रमाद कर्तव्य नही है; तथापि आराधक जीवोका तद्वत् सुदृढ उपयोग रहता है। , . . . आत्मबलाधीनतासे पत्र लिखा गया है।।
ॐ शाति -~-९४३ मोरबी, श्रावण वदी ७, शुक्र, १९५६
जिनाय नम परम निवृत्तिका निरतर सेवन करना यही ज्ञानीकी प्रधान आज्ञा है, तथारूप योगमे असमर्थता हो तो निवृत्तिका सदा सेवन करना, अथवा स्वात्मवीर्यका गोपन किये बिना हो सके उतना निवृत्तिका सेवन करने योग्य अवसर प्राप्त कर आत्माको अप्रमत्त करना, ऐसी आज्ञा है।