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श्रीमद राजचन्द्र
वाणिया, ज्येष्ठ वदी ३०, बुध, १९५६
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ॐ
परम पुरुषको अभिमत ऐसे अभ्यंतर और बाह्य दोनो संयमको उल्लासित भक्तिसे नमस्कार
'मोक्षमाला' के विषयमे आप यथासुख प्रवृत्ति करें ।
मनुष्यदेह, आर्यता, ज्ञानीके वचनोका श्रवण, उनमे आस्तिकता, सयम, उसके प्रति वीर्य प्रवृत्ति, प्रतिकूल योगोमे भी स्थिति, अंतपर्यत सपूर्ण मार्गरूप समुद्रको तर जाना —ये उत्तरोत्तर दुर्लभ और अत्यत कठिन हैं, यह नि सदेह है ।
शरीर-स्थिति क्वचित् ठीक देखनेमे आती है, क्वचित् उससे विपरीत देखनेमे आती है। अभी कुछ असाताकी मुख्यता देखनेमे आती है । ॐ शांतिः
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ववाणिया, ज्येष्ठ वदी ३०, बुध, १९५६
ॐ
चक्रवर्तीको समस्त सपत्तिकी अपेक्षा भी जिसका एक समय मात्र भी विशेष मूल्यवान है ऐसी यह मनुष्यदेह और परमार्थके अनुकूल योग प्राप्त होनेपर भी, यदि जन्म-मरणसे रहित परमपदका ध्यान न रहा तो इस मनुष्य देह अधिष्ठित आत्माको अनतबार धिक्कार हो ।
जिन्होने प्रमादको जीता उन्होने परमपदको जीत लिया ।
पत्र प्राप्त हुआ ।
शरीर स्थिति अमुक दिन स्वस्थ रहती है और अमुक दिन अस्वस्थ रहती है। योग्य स्वस्थताकी - ओर अभी वह गमन नही करती, तथापि अविक्षेपता कर्तव्य है ।
शरीर स्थितिकी अनुकूलता - प्रतिकूलताके अधीन उपयोग कर्तव्य नही है ।
शांतिः
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वाणिया, ज्येष्ठ वर्दी ३०, १९५६ ' जिससे चिंतित प्राप्त हो उस मणिको चितामणि कहा है, यही यह मनुष्यदेह है कि जिस देह, योगमे सर्व दु खका आत्यतिक क्षय करनेका निश्चय किया तो अवश्य सफल होता है ।
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जिसका माहात्म्य अचित्य है, ऐसा सत्सगरूपी कल्पवृक्ष प्राप्त होनेपर जीव दरिद्र रहे, ऐसा हो तो इस जगतमे वह ग्यारहवाँ आश्चर्य ही है ।
वाणिया, आषाढ सुदी १, गुरु, १९५६
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परम कृपालु मुनिवरोको नमस्कार प्राप्त हो । नडियाद से लिखवाया पत्र आज यहां प्राप्त हुआ ।
जहाँ द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदिको अनुकूलता दिखायी देती हो वहाँ चातुर्मास करनेमे आय पुरुषोको विक्षेप नही होता । दूसरे क्षेत्रकी अपेक्षा बोरसद- अनुकूल प्रतीत हो तो वहाँ चातुर्मासकी स्थिति कर्तव्य है ।
दो बार उपदेश और एक बार आहार ग्रहण तथा निद्रा समयके सिवाय बाकीका अवकाश मुख्यतः आत्मविचारमे, ‘पद्मनंदी' आदि शास्त्रावलोकनमे और आत्मध्यानमे व्यतीत करना योग्य है । कोई बहन