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३३ वॉ वर्ष
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तत्त्वप्रतीतिसे शुद्ध-चैतन्यके प्रति वृत्तिका प्रवाह मुड़ता है। शुद्ध चैतन्य के अनुभव के लिये चारित्रमोह नष्ट करना योग्य है ।
चैतन्यके – ज्ञानीपुरुषके सन्मार्गकी नैष्ठिकतासे चारित्रमोहका प्रलय होता है |
असंगतासे परमावगाढ अनुभव हो सकता है ।
हे आर्य मुनिवरी । इसी असग शुद्ध चैतन्यके लिये असगयोगकी हम अहर्निश इच्छा करते है । हे मुनिवरी । असंगताका अभ्यास करें ।
दो वर्ष कदापि समागम न करना ऐसा होनेसे अविरोधता होती हो तो अंतमे दूसरा कोई सदुपाय न हो तो वैसा करे |
जो महात्मा असंग चैतन्यमे लीन हुए, होते हैं, और होगे, उन्हें नमस्कार ।
ॐ शांति
बम्बई, कार्तिक वदी ११, मगल, १९५६
९०२ *जड ने चैतन्य बन्ने द्रव्यनो स्वभाव भिन्न, सुप्रतीतपणे बन्ने जेने समजाय छे; स्वरूप चेतन निज, जड छे संबंध मात्र, अथवा ते ज्ञेय पण परद्रव्यमांय छे; एवो अनुभवनो प्रकाश उल्लासित थयो,
जयी उदासी ने आत्मवृत्ति थाय छे, कायानी विसारी माया, स्वरूपे समाया एवा,
निर्ग्रथनो पंथ भवअंतनो उपाय छे ॥ १ ॥
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देह जीव एकरूपे भासे छे अज्ञान वडे, क्रियानी प्रवृत्ति पण तेथी तेम थाय छे, जीवनी उत्पत्ति अने रोग, शोक, दुःख, मृत्यु, देहनो स्वभाव जीव पदमां जणाय छे;
* भावार्थ - जड और चैतन्य दोनो द्रव्योका स्वभाव भिन्न है, ऐसा यथार्थ प्रतीतिपूर्वक जिसे समझमें आता है, उसे भान होता है कि निजस्वरूप तो चेतन है और जड तो सम्बन्ध मात्र हैं, अथवा जड़ तो ज्ञेयरूप परद्रव्य है
और स्वय तो उसका ज्ञाता द्रष्टा है । चैतन्यस्वरूप आत्मा उससे सर्वथा भिन्न है । यो स्वरूपका अनुभव अर्थात् आत्म-साक्षात्कार हो जानेसे जड पदार्थके प्रति उदासीनता आ जाती है, जिससे वहिर्मुखता दूर होकर अतमुखता हो जाती है अर्थात् आत्मा स्वरूपमें स्थित हो जाता है अथवा आत्म-लीनता आ जाती है। आत्म जागृति एव आत्मभान हो जानेपर कायाकी ममता, आसक्ति नही रहती अथवा देहाण्यास दूर हो जाता है और आत्मा स्वरूपस्य हो जाता है । इसलिये निग्रंथका पथ भवात - मोक्षका सच्चा उपाय है ॥ १ ॥
अज्ञानते शरीर और आत्मा एकरूप - अभिन्न लगते हैं । यह भ्राति अनादि कालसे चली आ रही है । इसलिये क्रियाकी प्रवृत्ति भी उसी भ्रातिपूर्वक होती रहती है । जन्म, रोग, शोक, दु ल, मृत्यु आदि देहका स्वभाव है, परंतु अज्ञानवश आत्माका स्वभाव माना जाता है । देह और आत्माको एकरूप माननेका जो अनादि मिव्यात्व भाव ह वह शानीपुरुषके बोधसे दूर हो जाता है । जीव जव ज्ञानीके बोघको आत्मसात् कर लेता है तव जड और चेतनका भिन्न स्वभाव स्पष्ट प्रतीत होता है । फिर दोनो द्रव्य अपने-अपने रूपमें स्थित हो जाते हैं अर्थात् आत्मा आत्मरूपमें ओर कर्मरूप पुद्गल पुद्गलरूपमें स्थित हो जाते हैं ॥२॥