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श्रीमद् राजचन्द्र इस प्रकार आपके प्रश्नोका सक्षेपमे उत्तर लिखता हूँ। लौकिकभावको छोडकर, वाचाज्ञान छोड़कर, कल्पित विधि-निषेध छोड़कर जो जीव प्रत्यक्ष ज्ञानीकी आज्ञाका आराधन कर, तथारूप उपदेश पाकर, तथारूप आत्मार्थमे प्रवृत्ति करे तो उसका अवश्य कल्याण होता है।
__निज कल्पनासे ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदिका स्वरूप चाहे जैसा समझकर अथवा निश्चयनयात्मक बोल सीखकर जो सद्व्यवहारका लोप करनेमे प्रवृत्ति करे, उससे आत्माका कल्याण होना सभव नही है, अथवा कल्पित व्यवहारके दुराग्नहमे रुके रहकर प्रवृत्ति करते हुए भी जीवका कल्याण होना संभव नही है।
ज्यां ज्यां जे जे योग्य छ, तहां समजव तेह।। त्यां त्यां ते ते आचरे, आत्मार्थी जन एह ॥
-'आत्मसिद्धिशास्त्र', एकात क्रियाजडतामे अथवा एकात शुष्कज्ञानसे जीवका कल्याण नही होता ।
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ववाणिया, वैशाख वदी ८, मगल, १९५६
ॐ
प्रमत्त-प्रमत्त ऐसे वर्तमान जीव हैं, और परम पुरुषोने अप्रमत्तमे सहज आत्मशुद्धि कही है, इसलिये उस विरोधके शात होनेके लिये परम पुरुपका समागम, चरणका योग ही परम हितकारी है। ॐ शातिः
९२० -
ववाणिया, वैशाख वदी ८, मगल, १९५६
भाई छगनलालका और आपका लिखा हुआ यो दो पत्र मिले। वीरभगामकी अपेक्षा यहाँ पहले स्वास्थ्य कुछ ढीला रहा था । अब कुछ भी ठीक हुआ होगा ऐसा मालूम होता है। 1, ॐ परमशातिः
९२१
'
ववाणिया, वैशाख वदी १, बुध, १९५६ ,
'मोक्षमाला' मे शब्दांतर अथवा प्रसंगविशेषमे कोई वाक्यातर करनेकी वृत्ति हो तो करें। उपोद्घात आदि लिखनेकी वृत्ति हो तो लिखें । जीवनचरित्रकी वृत्ति उपशात करें। .
उपोद्घातसे वाचकको, श्रोताको अल्प अल्प मतातरकी वृत्ति विस्मृत होकर ज्ञानी पुरुषोके आत्मस्वभावरूप परम धर्मका विचार करनेकी स्फुरणा हो, ऐसा लक्ष्य सामान्यत रखे। यह सहज सूचना है।
शातिः
९२२ व वाणिया, वैशाख वदी ९, बुध, १९५६ साणदसे मुनिश्रीने श्री अम्बालालके प्रति लिखवाया हुआ पत्र स्तंभतीर्थसे आज यहाँ मिला।
ॐ परमशांतिः नडियाद और वसो-क्षेत्रके चातुर्मासमे तीन तीन मुनियोकी स्थिति हो तो भी श्रेयस्कर ही है। . . . . . .
. . . . ॐ परमशातिः