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३३ वाँ वर्ष
बबई, कात्तिक, १९५६
परम वीतरागोद्वारा आत्मस्थ किये हुए, यथाख्यात चारित्रसे प्रगट किये हुए परम असंगत्वको निरंतर
व्यक्ताव्यक्तरूपसे याद करता हूँ। इस दुःषमकालमे सत्समागमका योग भी अति दुर्लभ है, उसमे परम सत्सग और परम असगत्वका योग कहांसे हो?
सत्समागमका प्रतिबध करनेके लिये कहे तो वैसा प्रतिबध न करनेकी वृत्ति बतायी तो वह योग्य है, यथार्थ है। तदनुसार वर्तन कीजियेगा। सत्समागमका प्रतिबंध करना योग्य नहीं है, तथा सामान्यतः उनके साथ समाधान रहे ऐसा बर्ताव रखना हितकारी है।
फिर जिस प्रकार विशेष उस संगमे आना न हो ऐसे क्षेत्रमे विचरना योग्य है, कि जिस क्षेत्रमे आत्मसाधन सुलभतासे हो। ___ परम शात श्रुतके विचारमे इन्द्रियनिग्रहपूर्वक आत्मप्रवृत्ति रखनेमे स्वरूपस्थिरता अपूर्वतासे प्रगट होती है।
सतोष आर्या आदिके लिये यथाशक्ति ऊपर दर्शित किया हुआ प्रयत्न योग्य है। ॐ शातिः
८९७ मोहमयीक्षेत्र, कार्तिक सुदी ५(ज्ञानपचमी), १९५६ परम शात श्रुतका मनन नित्य नियमपूर्वक कर्तव्य है।
शातिः
८९८
वम्बई, कार्तिक सुदी ५, बुध, १९५६
यह प्रवृत्ति व्यवहार ऐसा है कि जिसमे वृत्तिको यथाशातता रखना यह असभव जैसा है। कोई विरले ज्ञानी इसमे शात स्वरूपनैष्ठिक रह सकते हो, इतना बहुत दुर्घटतासे बनना सम्भव है। उसमे अल्प अथवा सामान्य मुमुक्षुवृत्तिके जोव शात रह सके, स्वरूपनष्ठिक रह सक, ऐसा यथारूप नही परन्तु