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श्रीमद राजचन्द्र
अनुभव उत्साहदशा 'जैसौ निरभेदरूप, निहचे अतीत हुतो ।' तैसौ निरभेद अब, भेदकौ न गगौ ॥ दोसै कर्मरहित सहित सुख समाधान । पायौ निजथान फिर बाहरि न बहगौ ॥ कबहूँ कदापि अपनी सुभाव त्यागि करि । राग रस राचिकेँ न परवस्तु गहैगौ ॥ अमलान ज्ञान विद्यमान परगट भयौ । याहि भाति आगम अनत काल रहैगौ ॥ स्थितिदशा
करतु है ॥
एक परिनामके न करता दोई परिनाम एक दर्व न एक करतूति दोई दर्द कबहूँ दोई करतूति एक दर्व न जीव पुद्गल एक खेत अवगाही दोऊ । अपने अपने रूप कोऊ न टरतु है ॥ जड परिनामुनिको करता है पुद्गल । चिदानन्द चेतन सुभाव आचरतु है ॥
दरव दोई ।
धरतु है ॥ न करै ।
श्री सोभागको विचार करने के लिये यह पत्र लिखा है, इसे अभी श्री अबालाल अथवा किसी दूसरे योग्य मुमुक्षु द्वारा उन्हे ही सुनाना योग्य है ।
आत्मा सर्व अन्यभावसे रहित है, जिसे सर्वथा ऐसा अनुभव रहता है वह 'मुक्त' है ।
जिसे अन्य सर्व द्रव्यसे असगता, क्षेत्रसे असगता, कालसे असगता और भावसे असगता सर्वथा रहती है, वह 'मुक्त' है ।
_अटल अनुभवस्वरूप आत्मा सब द्रव्योसे प्रत्यक्ष भिन्न भासित हो तबसे मुक्तदशा रहती है । वह पुरुष मौन हो जाता है, वह पुरुष अप्रतिबद्ध हो जाता है, वह पुरुष असग हो जाता है, वह पुरुष निर्विकल्प हो जाता है और वह पुरुष मुक्त हो जाता है ।
जिन्होने तीनो कालमे देहादिसे अपना कुछ भी संबध न था, ऐसी असगदशा उत्पन्न की है उन भगवानरूप सत्पुरुषोको नमस्कार हो ।
तिथि आदिका विकल्प छोडकर निज विचारमे रहना यही कर्तव्य है ।
शुद्ध सहज आत्मस्वरूप ।
१ भावार्थ - ससारी दशामें निश्चयनयसे आत्मा जिस प्रकार अभेदरूप था उसी प्रकार प्रगट हो गया । उस परमात्माको अव भेदरूप कोई नही कहेगा । जो कर्म रहित और सुख-शातिसहित दिखायी देता है, तथा जिसने अपने स्थान - मोक्ष को पा लिया है, वह अव जन्म-मरणरूप ससारमे नही आयेगा । वह कभी भी अपना स्वभाव छोडकर रागद्वेपमें पड़कर परवस्तुको ग्रहण नही करेगा, क्योकि वर्तमानकालमे जो प्रगट हुआ है, वह तो आगामी अनतकाल तक ऐसा ही रहेगा । लिये देखें आक ३१७ ।
निर्मल पूर्ण ज्ञान - २ भावायंके