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श्रीमद राजचन्द्र
ओर सम्यग्विरति न होनेपर भी उसकी प्ररूपणा करना, उपदेशक होना, यह प्रगट मिथ्यात्व, कुगुरुपन और मार्गका विरोध है ।
चौये पाँचवें गुणस्थानमे यह पहचान प्रतीति है, और आत्मज्ञान आदि गुण अशत मोजूद हैं, और पाँचवे मे देशविरति भावको लेकर चौथेसे विशेषता है, तथापि सर्वविरति जितनी वहाँ विशुद्धि नही है । आत्मज्ञान, समदर्शिता आदि जो लक्षण बताये है, वे सयतिधर्ममे स्थित वीतरागदशा साधक उपदेशक-गुणस्थानमे स्थित सद्गुरुको ध्यानमे रखकर मुख्यत बताये है और उनमे वे गुण बहुत अशोमे रहते है । तथापि वे लक्षण सर्वांशमे सपूर्णरूपसे तो तेरहवें गुणस्थानमे स्थित सपूर्ण वीतराग और कैवल्य सपन्न जीवन्मुक्त सयोगी केवली परम सद्गुरु श्री जिन अरिहत तीर्थंकरमे विद्यमान है । उनमे आत्मज्ञान अर्थात् स्वरूपस्थिति संपूर्णरूपसे है, यह उनकी ज्ञानदशा अर्थात् 'ज्ञानातिशय' सूचित किया। उनमे समदर्शिता अर्थात् इच्छारहितता सपूर्णरूपसे है, यह उनकी वीतराग चारित्रदशा अर्थात् 'अपायापगमातिशय' सूचित किया । सपूर्णरूपसे इच्छारहित होनेसे उनकी विचरने आदिकी दैहिक आदि योगक्रिया पूर्वप्रारब्धोदयका मात्र वेदन कर लेनेके लिये ही है, इसलिये 'विचरे उदयप्रयोग' कहा । सपूर्ण निज अनुभवरूप उनकी वाणी अज्ञानीकी वाणीसे विलक्षण और एकात आत्मार्थबोधक होनेसे उनमे वाणीकी अपूर्वता कही है, यह उनका 'वचनातिशय' सूचित किया । वाणीधर्ममे रहनेवाला श्रुत भी उनमे ऐसी सापेक्षतासे रहता है कि जिससे कोई भी नय बाधित नही होता, यह उनका 'परमश्रुत' गुण सूचित किया और जिनमे परमश्रुत गुण रहता है वे पूजने योग्य होते है यह उनका 'पूजातिशय' सूचित किया ।
श्री जिन अहित तीर्थंकर परम सद्गुरुकी भी पहचान करानेवाले विद्यमान सर्वविरति सद्गुरु हैं, इसलिये इन सद्गुरुको ध्यान मे रखकर ये लक्षण मुख्यत: बताये है ।
(२) समदर्शिता अर्थात् पदार्थमे इष्टानिष्टवुद्धिरहितता, इच्छारहितता और ममत्वरहितता । समदर्शिता चारित्रदशा सूचित करती है । रागद्वेषरहित होना यह चारित्रदशा है । इष्टानिष्टबुद्धि, ममत्व और भावाभावका उत्पन्न होना रागद्वेष है । यह मुझे ' प्रिय है, यह अच्छा लगता है, यह मुझे अप्रिय हैं, यह अच्छा नही लगता ऐसा भाव समदर्शीमे नही होता । समदर्शी बाह्य पदार्थको, उसके पर्यायको, वह पदार्थ तथा पर्याय जिस भावसे रहते है उन्हें उसी भावसे देखता है, जानता है और कहता है, परंतु उस पदार्थ अथवा उसके पर्यायमे ममत्व या इष्टानिष्ट बुद्धि नही करता ।
आत्माका स्वाभाविक गुण देखने-जानने का होनेसे वह ज्ञेय पदार्थको ज्ञेयाकारसे देखता जानता है; परतु जिस आत्मामे समदर्शिता प्रगट हुई है, वह आत्मा उस पदार्थको देखते हुए, जानते हुए भी उसमे ' ममत्वबुद्धि, तादात्म्यभाव और इष्टानिष्टबुद्धि नही करता । विषमदृष्टि आत्माको पदार्थमे तादात्म्यवृत्ति होती है; समदृष्टि आत्माको नही होती ।
कोई पदार्थ काला हो तो समदर्शी उसे काला देखता है, जानता है और कहता है । कोई श्वेत हो
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तो उसे वैसा देखता है, जानता है और कहता है कोई पदार्थ सुरभि (सुगधी) हो तो उसे वह वैसा देखता है, जानता है और कहता है । कोई दुरभि (दुर्गंधी) हो तो उसे वैसा देखता है, जानता है और कहता है । कोई ऊँचा हो, कोई नोचा हो तो उसे वैसा देखता है, जानता है और कहता है । सर्पको सर्पकी प्रकृतिरूप से वह देखता है, जानता है और कहता है । बाघको बाघकी प्रकृतिरूपसे देखता है, जाता है और कहता है । इत्यादि प्रकारसे वस्तु मात्र जिम रूपसे जिस भावसे होती है, उस रूपसे उस भावसे समदर्शी उसे देखता है, जानता है और कहता है। हेय ( छोड़ने योग्य) को हेयरूपसे देखता है, जानता है और कहता है । उपादेय ( ग्रहण करने योग्य) को उपादेयरूपसे देखता है, जानता है और कहता है । परंतु समदर्शी आत्मा उन सबमे ममत्व, इष्टानिष्टबुद्धि ओर रागद्वेष नही करता, सुगंध देखकर