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श्रीमद् राजचन्द्र
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मोरबी, फागुन सुदी १, रवि, १९५५
वीतरागवृत्तिका अभ्यास रखियेगा।
८६३ ववाणिया, फागुन वदी १०, बुध, १९५५ आत्मार्थीको, बोध कब परिणमित हो सकता है, यह भाव स्थिरचित्तसे विचारणीय है, जो मूलभूत है।
अमुक असवृत्तियोका प्रथम अवश्य ही निरोध करना योग्य है। इस निरोधके हेतुका दृढतासे अनुसरण करना ही चाहिये, इसमे प्रमात करना योग्य नही है । ॐ
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ववाणिया, फागुन वदी ३०, १९५५ *चरमावर्त हो चरमकरण तथा रे, भवपरिणति परिपाक । दोष टळे वळी दृष्टि खूले भली रे, प्रापति प्रवचन वाक ॥१॥ परिचय पातिक घातिक साधुशं रे, अकुशल अपचय चेत।। ग्रंथ अध्यातम श्रवण मनन करी रे, परिशीलन नयहेत ॥२॥ मुगध सुगम करी सेवन लेखवे रे, सेवन अगम अनुप। देजो कदाचित् सेवक याचना रे, आनंदघन रसरूप ॥३॥
-आनदघन, सभवजिनस्तवन किसी निवृत्तिमुख्य क्षेत्रमे विशेष स्थितिके अवसरपर सत्श्रुत विशेष प्राप्त होना योग्य है । गुर्जर देशकी ओर आपका आगमन हो यो खेराळ क्षेत्रमे मुनिश्री चाहते है । वेणासर और टीकरके रास्तेसे होकर धागध्राकी तरफसे अभी गुर्जर देशमे जा सकना सम्भव है। उस मार्गमे पिपासा परिषहका कुछ सम्भव रहता है।
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ववाणिया, चैत्र सुदी १, १९५५ उवसंतखीणमोहो, मग्गं जिणभासिदेण समुवगदो। णाणाणुमग्गचारी णिव्वाणपुरं वज्जदि धीरो॥
-पचास्तिकाय, ७० जिसका दर्शनमोह उपशात अथवा क्षीण हुआ है ऐसा धीर पुरुष वीतरागो द्वारा प्रदर्शित मार्गको अगीकार करके शुद्धचैतन्यस्वभाव परिणामी होकर मोक्षपुरको जाता है ।
*भावार्थ-जब अतिम पुद्गल परावर्त आ पहुँचे और तीन करणोमेंसे तीसरा करण-अनिवृत्तिकरण हो । तथा ससारमें भटकनेकी आदतका अत आ पहुंचे, तव तीन दोप--भय, द्वेप और खेद-दूर हो जाते हैं, भली दृष्टि । खुल जाती है और प्रवचन, सिद्धातके वचनका लाभ होता है ।।१।।
फिर पापके नाशक साधुके साथ परिचय बढता चले, मनसबधी अकल्याणकारिताको कमी होतो जाये और आत्मिक सेवनके लिये तथा दृष्टिविंदु धारण करनेके लिये आध्यात्मिक ग्रथोका श्रवण एव मनन बन पाये ॥२॥
भोले भाले मनुष्य सरल एव सहज मानकर सेवाका कार्य शुरू कर देते हैं, परन्तु उन्हें समझना चाहिये कि सेवाका कार्य तो अगम्य एव अनुपम है। यह तो कठिन और वेजोड है । हे आनदघनके रसमय प्रभु ' इस सेवककी मांगको कभी सफल कीजिये अथवा आनदसमुच्चयके रसरूप सेवाकी मांगको कभी सफल कीजिये ॥३॥