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श्रीमद् राजचन्द्र
८५४ ईडर, मार्गशीर्ष सुदी १५, सोम, १९५
ॐ नमः आपने तथा वनमाळोदासने बम्बई एक पत्र लिखा था वह वहाँ प्राप्त हुआ था।
अभी एक सप्ताहसे यहाँ स्थिति हे । 'आत्मानुशासन' ग्रन्थ पढ़नेके लिये प्रवृत्ति करते हुए आज्ञाव अतिक्रम (उल्लघन) नही है । अभी आपको और उन्हे वह ग्रन्थ वारम्वार पढने तथा विचारने योग्य है 'उपदेश-पत्रो'के वारेमे बहुत करके तुरत उत्तर प्राप्त होगा । विशेष यथावसर ।
राजचन्द्र
ईडर, मार्गशीर्ष सुदी १५, सोम, १९५ वीतरागश्रुतका अभ्यास रखिये।
८५६ ईडर, मार्गशीर्ष वदी ४, शनि, १९५५
ॐनमः आपका लिखा पत्र तथा सुखलालके लिखे पत्र मिले है। अभी यहाँ समागम होना अशक्य है । अब विशेष स्थितिका भी सम्भव मालूम नही होता। आपको जो समाधानविशेषकी जिज्ञासा है, वह किसी निवृत्तियोगके समागममे प्राप्त होने योग्य है
जिज्ञामावल, विचारवल, वैराग्यवल, ध्यानवल और ज्ञानबल वर्धमान होनेके लिये आत्मार्थ जीवको तथारूप ज्ञानीपुरुपके समागमकी उपासना विशेषत करनी योग्य है । उसमे भी वर्तमानकाला जीवोको उस बलकी दृढ छाप पड जानेके लिये बहुत अन्तराय देखनेमे आते हैं, जिससे तथारूप शुद्ध जिज्ञासुवृत्तिसे दोर्घकालपर्यन्त सत्समागमकी उपासना करनेकी आवश्यकता रहती है । सत्समागम अभावमे वीतरागश्रुत-परमशातरसप्रतिपादक वीतरागवचनोकी अनुप्रेक्षा वारवार कर्तव्य हैं चित्तस्थैर्य के लिये वह परम औषध है।
८५७ ईडर, मार्गशीर्ष वदी ३०, गुरु, सवेरे, १९५५
ॐ नमः आत्मार्थी भाई अंबालाल तथा मुनदासके प्रति, स्तभतीर्थ ।
मुनदासका लिखा हुआ पत्र मिला। वनस्पतिसवधी त्यागमे अमुक दससे पाँच वनस्पतिका अर्भ आगार र वकर दूसरी वनस्पतियोसे विरत होनेमे आज्ञाका अतिक्रम नही है।
आप सवका अभी अभ्यासादि कैसा चलता है ? मद्देवगुरुशास्त्रभक्ति अप्रमत्ततासे उपासनीय है।
श्री ॐ
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ईडर, पोप, १९५६ मा मुन्शह मा रज्जह मा दुस्सह इट्ठणि?अत्येसु । यिरमिच्छह जइ चित्तं विचित्तझाणप्पसिद्धीए ॥४९॥ पणतीस सोल छप्पण चदु दुगमेगं च जवह झाएह ।
परमेट्ठियाचयाण अण्ण च गुरुवएसेण ॥५०॥ यदि तुम स्थिरताको इच्छा करते हो तो प्रिय अथवा अप्रिय वस्तुमे मोह न करो, राग न करो द्वेष न करो। अनेक प्रकारके ध्यानको प्राप्तिके लिये पॅतीस, सोलह, छ, पांच, चार, दो और एक