________________
६३८
श्रीमद राजचन्द्र
८४६
ॐ नमः
अहो जिर्णोह असावज्जा, वित्ती साहूण देसिया | मुक्खसाहणहेउस्स, साहुदेहस्स धारणा ॥
अध्ययन ५ - ९२
भगवान जिनने आश्चर्यकारक निष्पापवृत्ति (आहारग्रहण) का मुनियोको उपदेश दिया । ( वह भी किस लिये ? ) मात्र मोक्ष-साधनके लिये । मुनिको देहकी जरूरत है, उसको टिकानेके लिये । (किसी भी दूसरे हेतुसे नही) ।
वनक्षेत्र उत्तरसंडा, प्रथम आसोज वदी ९, रवि, १९५४
अहो णिच्चं तवो कम्मं सव्व बुद्धेहि वण्णिअ । जाव लज्जासमा वित्ती एगभत्तं च भोयणं ॥
- दशवैकालिक अध्ययन ६-२२
सर्व जिन भगवानोने आश्चर्यकारक (अद्भुत उपकारभूत) तपःकर्मको नित्य करनेके लिये उपदेश किया है । ( वह इस प्रकार - ) सयमके रक्षणके लिये सम्यग्वृत्तिसे एक बार आहारग्रहण । (दशवैकालिक सूत्र ) ।
तथारूप असग निग्रंथपदका अभ्यास सतत वर्धमान कीजिये । 'प्रश्नव्याकरण', 'दशवैकालिक' और 'आत्मानुशासन' का अभी सपूर्ण ध्यान देकर विचार कीजियेगा । एक शास्त्रको पूरा पढनेके बाद दूसरा विचारियेगा |
८४७
ॐ
खेडा, द्वि० आसोज सुदी ६, १९५४
विक्षेपरहित रहे । यथावसर अवश्य समाधान होगा । यहाँ समागम के लिये आनेके बारेमे यथासुख प्रवृत्ति करें ।
८४८
खेडा, द्वि० आसोज सुदी ९, शनि, १९५४ लगभग अव तीन मास पूर्ण होने आये है । इस क्षेत्रमे अब स्थिति करनेकी इस समयके लिये वृत्ति नहीं रही । परिचय बढनेका वक्त आ जाये ।
८४९
हे जीव | इस क्लेशरूप ससारसे निवृत्त हो, निवृत्त हो ।
खेडा, द्वि० आश्विन वदी, १९५४
वीतराग प्रवचन आसोज १९५४
८५०
मेरा चित्त - मेरी चित्तवृत्तियाँ इतनी शात हो जायें कि कोई मृग भी इस शरीरको देखता ही रहे, भय पाकर भाग न जाये ।
मेरी चित्तवृत्ति इतनी शात हो जाये कि कोई वृद्ध मृग, जिसके सिरमे खुजली आती हो वह इस शरीरको जड पदार्थ समझ कर खुजली मिटानेके लिये अपना सिर इस शरीरसे घिसे ।
-