________________
३१ वॉ वर्ष
६३३
कोई एक जीव
एकेंद्रिय रूपसे-पर्याय, दो इन्द्रिय रूपसे-" तीन इन्द्रिय रूपसे- वर्तमान भाव 'चार इन्द्रिय रूपसे-, पाँच इन्द्रिय रूपसे-,
सज्ञी असंज्ञी ।
पर्याप्त
पतमान भाव
अपर्याप्त )
ज्ञानी । वर्तमान भाव
सिद्ध भाव
अज्ञानी
वतमान भाव
मिथ्यादृष्टि । वर्तमान भाव
सम्यग्दृष्टि । वर्तमान भाव
एक अंश क्रोध । यावत् अनंत अश क्रोध । वतमान भाव
८३७
स० १९५४ आत्मज्ञान समदर्शिता, विचरे उदयप्रयोग।
अपूर्ववाणी परमश्रुत, सद्गुरु लक्षण योग्य ॥ --आत्मसिद्धिशास्त्र, १०वा पद , प्रश्न-(१) सद्गुरु योग्य ये लक्षण मुख्यत किस गुणस्थानकमे सभव है ?
___ (२) समर्शिता किसे कहते है ?
उत्तर-(१) सद्गुरु योग्य जो ये लक्षण बताये है वे मुख्यत , विशेषत उपदेशक अर्थात् मार्गप्रकाशक सदगरुके लक्षण कहे है । उपदेशक गुणस्थान छट्ठा और तेरहवाँ हैं, बीचके सातवेंसे वारहवें तक के गुणस्थान अल्पकालवर्ती है, इसलिये उनमे उपदेशक-प्रवृत्तिका सभव नही है। मार्गोपदेशक-प्रवृत्ति छट्टेसे शुरू होती है।
___ छट्टे गुणस्थानमे सपूर्ण वीतरागदशा और केवलज्ञान नही हैं । वे तो तेरहवेंमे है, और यथावत् मार्गोपदेशकत्व तेरहवे गुणस्थानमे स्थित सपूर्ण वीतराग और कैवल्यसपन्न परम सद्गुरु श्री जिन तीर्थकर आदिमे होना योग्य है। तथापि छठे गुणस्थानमे स्थित मुनि, जो सपूर्ण वीतरागता और कैवल्यदशाका उपासक है, उस दशाके लिये जिसका प्रवर्तन-पुरुषार्थ है, जो उस दशाको सपूर्णरूपसे प्राप्त नहीं हुआ है, तथापि उस सपूर्ण दशाके प्राप्त करनेके मार्ग-साधनको स्वय परम सद्गुरु श्री तीर्थकर आदि आप्तपुरुपके आश्रय-वचनसे जिसने जाना है, प्रतीत किया है, अनुभव किया है. और उस मार्ग-साधनकी उपासनासे जिसकी वह दशा उत्तरोत्तर विशेष विशेष प्रकट होती जाती है, तथा श्री जिन तीर्थंकर आदि परम सदगुरुकी, उनके स्वरूपकी पहचान जिसके निमित्तसे होती है, उस सद्गुरुमे भी मार्गका उपदेशकत्व अविरुद्ध है।
___उससे नीचेके पांचवे और चौथे गुणस्थानमे मार्गोपदेशकत्व प्राय घटित नही होता, क्योकि वहां बाह्य (गृहस्थ) व्यवहारका प्रतिबंध है, और बाह्य अविरतिरूप गृहस्थ व्यवहार होते हुए विरतिरूप मार्गका प्रकाश करना यह मार्गके लिये विरोधरूप है ।
चौथेसे नीचेके गुणस्थानकमे तो मार्गका उपदेशकत्व योग्य ही नहीं है, क्योकि वहाँ मार्गको, आत्माको, तत्त्वको, ज्ञानीकी पहचान-प्रतीति नहीं है, और सम्यविरति नही है, और यह पहचान-प्रतीति