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३१ वाँ वर्ष
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ववाणियां, ज्येष्ठ, १९५४ देहसे भिन्न स्वपरप्रकाशक परम ज्योतिस्वरूप यह आत्मा है, इसमे निमग्न होवें । हे आर्य जनो । न्तर्मुख होकर, स्थिर होकर उस आत्मामे ही रहे तो अनन्त अपार आनन्दका अनुभव करेंगे । - सर्व,जगतके जीव कुछ न कुछ प्राप्त करके सुख प्राप्त करना चाहते हैं, ढ़ते हुए वैभव, परिग्रहके संकल्पमे प्रयत्नवान है, और प्राप्त करनेमे सुख नियोने तो उससे विपरीत ही सुखका मार्ग निर्णीत किया कि किंचित्मात्र भी ग्रहण करना यही खका नाश है ।
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महान चक्रवर्ती राजा भी मानता है, परन्तु अहो !
विषयसे जिसकी इन्द्रियाँ आर्त्त है उसे शीतल आत्मसुख, आत्मतत्त्व कहाँसे प्रतीतिमे आयेगा ? परम धर्मरूप चन्द्रके प्रति राहु जैसे परिग्रहसे अब में विराम पाना ही चाहता हूँ । हमे परिग्रहको या करना है ?.
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कुछ प्रयोजन नही है ।
'जहाँ सर्वोत्कृष्ट शुद्धि वहाँ सर्वोत्कृष्ट सिद्धि ।'
हे आर्यजनो । इस परम वाक्यका आत्मभावसे आप अनुभव करें।
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ववाणिया, ज्येष्ठ सुदी १, शनि, १९५४ सर्वं द्रव्यसे, सर्व क्षेत्रसे, सर्वं कालसे और सर्व भावसे जो सर्वथा अप्रतिबद्ध होकर निजस्वरूपमे स्थित हुए उन परम पुरुषोको नमस्कार ।
' जिन्हे कुछ प्रिय नही है; जिन्हे कुछ अप्रिय नही है, जिनका कोई शत्रु नही है, जिनका कोई मित्र नही है, जिन्हे मान-अपमान, लाभ-अलाभ, हर्प- शोक, जन्म-मृत्यु आदि द्वन्द्वोका अभाव होकर जो शुद्ध चैतन्यस्वरूपमे स्थित हुए हैं, स्थित होते है और स्थित होगे उनका अति उत्कृष्ट पराक्रम सानदाश्चयं उत्पन्न करता है |
देहसे जैसा वस्त्रका सबध है, वैसा आत्मासे देहका सबध जिन्होने यथातथ्य देखा है, म्यानसे तलवारका जैसा सबध है वैसा देहसे आत्माका सबध जिन्होने देखा है, अबद्ध - स्पष्ट आत्माका जिन्होने अनुभव किया है, उन महत्पुरुषोको जीवन और मरण दोनो समान है ।
जिस अचित्य द्रव्यकी शुद्धचितिस्वरूप काति परम प्रगट होकर अचित्य करती है, वह अचित्य द्रव्य सहज स्वाभाविक निजस्वरूप है, ऐसा निश्चय जिस परमकृपालु सत्पुरुषने प्रकाशित किया उसका अपार उपकार है ।
चद्र भूमिको प्रकाशित करता है, उसकी किरणोकी कातिके प्रभाव से समस्त भूमि श्वेत हो जाती है, परतु चन्द्र कुछ भूमिरूप किसी कालमे नही होता, इसी प्रकार समस्त विश्वका प्रकाशक ऐसा यह आत्मा कभी भी विश्वरूप नही होता, सदा-सर्वदा चैतन्यस्वरूप ही रहता है । विश्वमे जीव अभेदता माता है यही भ्राति है ।
जैसे आकाशमे विश्वका प्रवेश नही है, सर्व भावकी वासनासे आकाश रहित ही है, वैसे ही सम्यग्दृष्टि पुरुषोने प्रत्यक्ष सर्व द्रव्यसे भिन्न, सर्वं अन्य पर्यायसे रहित ही आत्मा देखा है।
जिसकी उत्पत्ति किसी भी अन्य द्रव्यसे नही होती, ऐसे आत्माका नाश भी कहाँसे हो ?
अज्ञानसे और स्वस्वरूपके प्रमादसे आत्माको मात्र मृत्युकी भ्राति है । उसी भ्रातिको निवृत्त करके शुद्ध चेतन्य निजअनुभवप्रमाणस्वरूपमे परम जागत हाकर ज्ञानो सदैव निर्भय है । इसी स्वरूपकै लक्ष्यसे