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श्रीमद राजचन्द्र
आरंभ-परिग्रहसे जिनकी वृत्ति खिन्न हो गई है, अर्थात् उसे असार समझकर जो जोव उससे पीछे हट गये है, उन जीवोको सत्पुरुषोका समागम और सत्शास्त्रका श्रवण विशेषतः हितकारी होता है । जिस जीवकी आरम्भ-परिग्रहमे विशेष वृत्ति रहती हो, उस जीवमे सत्पुरुषके वचनोका अथवा सत्शास्त्रका परिणमन होना कठिन है ।
आरम्भ परिग्रहमे वृत्तिको मद करना और पडता है, क्योकि जीवका अनादि प्रकृतिभाव उससे लिया है वह वैसा कर सका है, इसलिये विशेष उत्साह रखकर वह प्रवृत्ति कर्तव्य है ।
सब मुमुक्षुओको इस बातका निश्चय और नित्य नियम करना योग्य है, प्रमाद और अनियमितता दूर करना योग्य है ।
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सत्शास्त्रके परिचयमे रुचि करना प्रथम तो कठिन भिन्न है, तो भी जिसने वैसा करनेका निश्चय कर
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बबई, आषाढ सुदी ४, रवि, १९५३ सच्चे ज्ञानके बिना और सच्चे चारित्रके बिना जीवका कल्याण नही होता, यह नि:संदेह है । सत्पुरुषके वचनोका श्रवण, उसकी प्रतीति, और उसकी आज्ञासे प्रवृत्ति करते हुए जीव सच्चे चारित्रको प्राप्त करते है, ऐसा नि सन्देह अनुभव होता है ।
यहाँसे 'योगवासिष्ठ' की पुस्तक भेजी है, उसे पाँच-दस बार पुनः पुनः पढना और वारंवार विचारना योग्य है |
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बबई, आषाढ वदी १, गुरु, १९५३ श्री धुरीभाईने 'अगुरुलघु' के विषयमे प्रश्न लिखवाया, उसे प्रत्यक्ष समागममे समझना विशेष
सुगम है ।
शुभेच्छासे लेकर शैलेशीकरण तककी सभी क्रियाएं जिस ज्ञानीको मान्य है, उस ज्ञानीके वचन त्यागवैराग्यका निषेध नही करते । त्याग - वैराग्यके साधनरूपमे प्रथम जो त्याग - वैराग्य आता है, उसका भी ज्ञानी निषेध नही करते ।
किसी एक जड-क्रिया प्रवृत्ति करके जो ज्ञानीके मार्गसे विमुख रहता हो, अथवा मतिकी मूढता के कारण ऊँची दशाको पानेसे रुक जाता हो, अथवा असत्समागमसे मतिव्यामोहको प्राप्त होकर जिसने अन्यथा त्याग - वैराग्यको सच्चा त्याग वैराग्य मान लिया हो, उसका निषेध करनेके लिये करुणाबुद्धिसे ज्ञानी योग्य वचनसे क्वचित् उसका निषेध करते हो, तो व्यामोह प्राप्त न कर उसका सद्हेतु समझकर यथार्थ त्याग - वैराग्यकी अतर तथा बाह्य क्रियामे प्रवृत्ति करना योग्य है ।
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बंबई, आषाढ़ वदी १, गुरु, १९५३ " सकळ संसारी इद्रियरामी, मुनिगुण आतमरामी रे । मुख्यपणे जे आतमरामी, ते कहिये निःकामी रे ॥'
हे मुनियो । आपको आर्यं सोभागकी अंतरग दशा और देहमुक्त समयकी दशाकी वारवार अनुप्रेक्षा ना योग्य है ।
मुनियो । आपको द्रव्यसे, क्षेत्रसे, कालसे ओर भावसे असंगतापूर्वक विचरनेका सतत उपयोग सिद्ध करना योग्य है । जिन्होंने जगतसुखस्पृहाको छोड़कर ज्ञानीके मार्गका आश्रय ग्रहण किया है, वे
१ भावार्थके लिये देखें आक ७४३ ।