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३१ वाँ वर्ष
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ववई, कात्तिक वदी १, बुध, १९५४ आत्मार्थी श्री मनसुख द्वारा लिखे हुए प्रश्नका समाधान विशेष करके सत्समागममे मिलनेसे यथायोग्य समझमे आयेगा।
जो आर्य अब अन्य क्षेत्रमे विहार करनेके आश्रममे हैं, उन्हे जिस क्षेत्रमे शातरसप्रधान वृत्ति रहे, निवृत्तिमान द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावका लाभ हो, उस क्षेत्रमे विचरना योग्य है । समागमकी आकाक्षा है, तो अभी अधिक दूर क्षेत्रमे विचरना न हो सकेगा, चरोतर आदि प्रदेशमे विचरना योग्य है। यही विनती। ॐ
बबई, कार्तिक वदी ५, १९५४ आपके लिखे पत्र मिले हैं। अमुक सद्ग्रन्थोका लोकहितार्थ प्रचार हो ऐसा करनेकी वृत्ति बतायो सो ध्यानमे हैं। . . मगनलाल आदिने दर्शन तथा समागमकी आकाक्षा प्रदर्शित की है वे पत्र भी मिले है। .
केवल अतर्मुख होनेका सत्पुरुषोका मार्ग सर्व दुखक्षयका उपाय है, परतु वह किसी ही जीवको समझमे आता है । महत्पुण्यके योगसे, विशुद्ध मतिसे, तीव्र वैराग्यसे-और सत्पुरुषके समागमसे वह उपाय समझमे आने योग्य है । उसे समझनेका अवसर एक मात्र यह मनुष्य देह है। वह भी अनियमित कालके भयसे गृहीत है, वहाँ प्रमाद होता है, यह खेद और आश्चर्य है । ॐ
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___ बंबई, कात्तिक वदी १२, १९५४ पहले आपके दो पत्र और अभी एक पत्र मिला है । अभी यहाँ स्थिति होना सम्भव है।
आत्मदशाको पाकर जो निर्द्वन्द्वतासे यथाप्रारब्ध विचरते हैं, ऐसे महात्माओका योग जीवको दुर्लभ है । वैसा योग मिलनेपर जीवको उस पुरुषकी पहचान नही होती, और तथारूप पहचान हुए विना उस महात्माका दृढाश्रय नही होता। जब तक आश्रय दृढ न हो तब तक रपदेश फलित नही होता। उपदेशके फलित हुए बिना सम्यग्दर्शनको प्राप्ति नहीं होती। सम्यग्दर्शनको प्राप्तिके विना