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श्रीमद राजचन्द्र
९३. इसीलिये सर्वज्ञ वीतरागदेवने सिद्ध भगवानका स्थान ऊर्ध्वलोकात मे बताया है। इससे आकाश गति और स्थितिका कारण नही है ऐसा, जाते ।
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९४. यदि गतिका कारण आकाश होता अथवा स्थितिका कारण आकाश होता, तो अलोककी हानि होती और लोकके अतकी वृद्धि भी हो जाती ।
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९५. इसलिये धर्म और अधर्म द्रव्य - गति तथा स्थिति के कारण है, परन्तु आकाश नही है । इस प्रकार सर्वज्ञ वीतरागदेवने श्रोता जीवोको लोकका स्वभाव बताया है ।
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९६. धर्म, अधर्म और (लोक) आकाश अपृथग्भूत (एकक्षेत्रावगाही) और समान परिमाणवाले हैं । निश्चयसे तीनो द्रव्योकी पृथक उपलब्धि है, और वे अपनी अपनी सत्तासे रहे हुए हैं। इस तरह इनमे एकता और अनेकता, दोनो है ।
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९७. आकाश, काल, जीव, धर्म और अधर्मं द्रव्य अमूर्त है, और पुद्गलद्रव्य मूर्त्त है। उनमे जीवद्रव्य चेतन है ।
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९८ जीव और पुद्गल एक दूसरेकी क्रियामे सहायक हैं।' दूसरे द्रव्य (उसे प्रकारसे) सहायक नहीं हैं । जीव पुद्गलद्रव्यके निमित्तसे क्रियावान होता है । कालंके कारणसे पुद्गल अनेक स्कधरूपसे परिणमन करता है ।
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९९. जीवद्वारा जो इद्रियग्राह्य विषय है वे पुंद्गल द्रव्य मूर्त हैं, शेष अमूर्त हैं। मन मूर्त एवं अमूर्त दोनो प्रकारके पदार्थोंको जानता है, अपने विचारसे निश्चित पदार्थोंको जानता है ।
१०० काल परिणामसे उत्पन्न होता है, परिणाम कालसे उत्पन्न होता है। दोनोका यह स्वभाव है । 'निश्चयकाल' से 'क्षणभंगुरकाल' होता है । -
१०१ काल शब्द अपने सद्भाव - अस्तित्वका बोधक है, उनमेसे - एक ( निश्चयकाल) नित्य है । दूसरा (समयरूप व्यवहारकाल) उत्पत्ति विनाशवाला है, और दीर्घाांतर स्थायी है ।
१०२ काल, आकाश, धर्म, अधर्म, पुद्गल और जीव, इन सबकी द्रव्य संज्ञा है । कालकी अस्तिकाय संज्ञा नही है ।
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१०३ इस तरह निग्रंथके प्रवचनके रहस्यभूत इस पंचास्तिकाय के स्वरूप विवेचन के सक्षेपको जो थार्थ रूपसे जानकर राग और द्वेपसे मुक्त हो जाता है वह सब दुखोसे परिमुक्त हो जाता है ।
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१०४ इस परमार्थको जानकर जो जीव मोहका नाशक़ हुआ है और जिसने रागद्वेषको ज्ञात किया हे वह जीव ससारकी दोघं परम्पराका नाश करके शुद्धात्मपदमे लीन हो जाता है ।
इति पचास्तिकाय प्रथम अध्याय ।
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ॐ जिनाय नमः । नमः श्री सद्गुरवे ।
१०५ मोक्षके कारणभूत श्री भगवान महावीरको भक्तिपूर्वक नमस्कार करके उन भगवान कहे हुए पदार्थप्रभेदरूप मोक्षमार्गको कहता हूँ ।
१०६ सम्यक्त्व, आत्मज्ञान ओर रागद्वेषसे रहित ऐसा चारित्र तथा सम्यक् बुद्धि जिन्हें प्राप्त हुई हे ऐसे भव्यजीवको मोक्षमार्ग प्राप्त होता है ।
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१०७ तत्त्वार्थ की प्रतीति 'सम्यक्त्व' है, तत्त्वार्थका ज्ञान 'ज्ञान' हे ओर विपयके विमूढ मागंके प्रति शातभाव' ' चारित्र' है ।
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१०८ जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आसवं, सवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष-ये नव तत्त्व हैं । १०२ जीव दो प्रकारके हैं-समारी बोर अससारी । दोनो चेतन्यस्वरूप और उपयोगलक्षणवाले हैं । ससारी देहमहित और अससारी देहरहित होते हैं ।
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