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श्रीमद् राजचन्द्र ज्ञानका दूसरा नाम अज्ञान हो तो जिस तरह ज्ञानसे मोक्ष होना कहा है, उसी तरह अज्ञानसे भी मोक्ष होना चाहिये । इसी तरह जैसे मुक्त जीवमे भी ज्ञान कहा है वैसे अज्ञान भी कहना चाहिये, ऐसी आशंका को है, जिसका समाधान यह है :
गाँठ पड़नेसे उलझा हुआ सूत्र और गाँठ निकल जानेसे सुलझा हुआ सूत्र ये दोनो सूत्र ही हैं, फिर भी गॉठकी अपेक्षासे उलझा हुआ सूत्र और सुलझा हुआ सूत्र कहा जाता है। उसी तरह मिथ्यात्वज्ञान 'अज्ञान' और सम्यग्ज्ञान 'ज्ञान' ऐसी परिभाषा की है, परन्तु मिथ्यात्वज्ञान जड है और सम्यग्ज्ञान चेतन है यह बात नही है । जिस तरह गाँठवाला सूत्र और गाँठ रहित सूत्र दोनो सूत्र ही हैं, उसी तरह मिथ्यात्वज्ञानसे ससार-परिभ्रमण और सम्यग्ज्ञानसे मोक्ष होता है । जैसे कि यहाँसे पूर्व दिशामे दस कोस दूर एक गाँव है, वहाँ जानेके लिये निकला हुआ मनुष्य दिशाभ्रमसे पूर्व के बदले पश्चिममे चला जाये, तो वह पूर्व दिशावाला गॉव प्राप्त नही होता, परन्तु इससे यह नहीं कहा जा सकता कि उसने चलनेकी क्रिया नही की; उसी तरह देह और आत्मा भिन्न होनेपर भी जिसने देह और आत्माको एक समझा है वह जीव देहबुद्धिसे ससारपरिभ्रमण करता है; परन्तु इससे यह नही कहा जा सकता कि उसने जाननेका कार्य नही किया है। पूर्वसे पश्चिमकी ओर चला है, यह जिस तरह पूर्वको पश्चिम माननेरूप भ्रम है, उसी तरह देह और आत्मा भिन्न होनेपर भी दोनोको एक माननेल्प भ्रम है, परंतु पश्चिममे जाते हुए चलते हुए जिस तरह चलनेरूप स्वभाव है, उसी तरह देह और आत्माको एक माननेमे भी जाननेरूप स्वभाव है । जिस तरह पूर्वके बदले पश्चिमको पूर्व मान लेना भ्रम है, वह भ्रम तथारूप हेतु-सामग्रीके मिलनेपर समझमे आनेसे पूर्व पूर्व ही समझमे आता है, और पश्चिम पश्चिम हो समझमे आता है, तब वह भ्रम दूर हो जाता है, और पूर्वकी तरफ चलने लगता है; उसी तरह देह और आत्माको एक मान लिया है वह सद्गुरुउपदेशादि सामग्री मिलनेपर दोनो भिन्न हैं यो यथार्थ समझमे आ जाता है, तब भ्रम दूर होकर आत्माके प्रति ज्ञानोपयोग परिणमित होता है। भ्रममे पूर्वको पश्चिम और पश्चिमको पूर्व मान लेनेपर भी पूर्व पूर्व ही और पश्चिम पश्चिम दिशा ही थो, मात्र भ्रमसे विपरीत भासित होता था। उसी तरह अज्ञानमे भी देह देह हो और आत्मा आत्मा ही होनेपर भी वे उस तरह भासित नही होते, यह विपरोत भासना है। वह यथार्थ समझमे आनेपर, भ्रम निवृत्त हो जानेसे देह देह ही भासित होती है और आत्मा आत्मा ही भासित होता है, और जाननेरूप स्वभाव जो विपरीत भावको भजता था वह सम्यग्भावको भजता है। वस्तुत: दिशाभ्रम कुछ भी नहीं है, और चलनेरूप क्रियासे इष्ट गांव प्राप्त नही होता, उसी तरह मिथ्यात्व भी वस्तुतः कुछ भी नहीं है, और उसके साथ जाननेरुप स्वभाव भी है, परन्तु साथमे मिथ्यात्वरूप भ्रम होनेसे स्वस्वरूपतामे परमस्थिति नही होती। दिशाभ्रम दूर हो जानेसे इष्ट गाँवकी ओर मुडनेके बाद मिथ्यात्वका भो नाश हो जाता है, और स्वस्वरूप शुद्ध ज्ञानात्मपदमे स्थिति हो सकती है इसमे किसी सदेहको स्थान नही है।
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ववाणिया, चैत्र सुदी ५, १९५३ यहाँसे पिछले पत्रमे तीन प्रकारके समकित बताये थे। उन तीनो समकितमेसे चाहे जो समकित प्राप्त करनेसे जीव अधिकसे अधिक पद्रह भवमे मोक्ष प्राप्त करता है, और कमसे कम उसी भवमे भी मोक्ष होता है, और यदि वह समकितका वमन कर दे, तो अधिकसे अधिक अर्ध पुद्गलपरावर्तनकाल तक ससारपरिभ्रमण करके भी मोक्षको प्राप्त करता है। समकित प्राप्त करनेके बाद अधिकसे अधिक अर्ध पुद्गलपरावर्तन ससार होता है।
१ देखें आक ७५१।