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, ३० वॉ वर्ष
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११०, पृथ्वी, पाजी, अग्नि, वायु और वनस्पति - ये जीवसश्रित काय है । "इन जीवोकों मोहकी 1366 57 प्रवलता है और स्पर्श - इद्रिय विषयका उन्हे ज्ञान है । ऍ. ' १११ इनमेसे तीन स्थावर हैं और अल्पयोगवाले अग्नि और वायुकार्य त्रस हैं । ये सभी मनश्री परिणामसे रहित 'एकेंद्रिय जीव' हैं ऐसा जानें।
- ११२ ये पाँचो प्रकार के जीवसमूह मनपरिणामसे रहित और एकेद्रिय हैं ऐसा सर्वज्ञने कहा है । . ११३ जिस तरह अडे पक्षीका गर्भ बढता है, जिस तरह मनुष्यगर्भमे मूर्च्छागत अवस्था होने पैरै' भी जीवत्व है, उसी तरह 'एकेंद्रिय जीव' को जानना चाहिये सशकों जानते है, उन्हें "द इन्द्रिय ११४ शबूक, शख, सीप, कृमि इत्यादि
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स्पर्शकों
जीव' जानना चाहिये |
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११५ जू, खटमल, चीटी, बिच्छू इत्यादि अनेक प्रकारके दूसरे भो कीडे, रस, स्पर्श और गन्धको, जानते है, उन्हे ‘तीन इन्द्रिय जीव' जानना चाहिये ।
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११६ डास, मच्छर, मक्खी, भ्रमरी, भ्रमर, पतग आदि रूप, रस, गन्ध और स्पर्शको जानते हैं; उन्हें 'चार इंद्रिय जीव' 'जानना चाहिये ।'
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११७ देव, मनुष्य, नारक,” तियच, "जलचर, स्थलचर और खेचरे "वर्ण, रस, स्पर्श, गन्ध और HERE 1. 15 शब्दको जानते है, ये बलवान 'पाच इंद्रियवाले जीव' हैं ।
११८ देवताके चार निकाय है । मनुष्य कर्म और अकर्म भूमिके भेद से दो प्रकारके है ।" तियंचके अनेक प्रकार है; और नारकी जितने नरक- पृथ्वी के भेद है उतने ही है ।
११९ पूर्वकालमे बाँधी हुई आयुके क्षीण हो जानेपर जीव गतिनामकर्मके कारण आयु और लेश्या के प्रभावसे 'अन्य देहको प्राप्त होता हैं।
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१२० देहाश्रित जीवोंके स्वरूपका यह विचार निरूपित किया । ये भव्य और अभव्यके भेदसे दे प्रकारके है । । ' देहरहित जीव 'सिद्ध भगवान है ।
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१२१, इन्द्रियाँ जीव नही है, तथा काया भी जीव नही हैं, परन्तु जीवके ग्रहण किये हुए साध मात्र हैं । वस्तुत तो जिन्हे ज्ञान है उनको ही जीव कहते हैं।
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- - - १२२. जो सब, जानता है, देखता है, दुखको दूर कर सुख चाहता है, शुभ-अशुभ क्रियाको करत है और उनका फल भोगता है, वह 'जीव' है ।
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'१२४. आकाश, काल, पुद्गल, धर्मं और अधर्म द्रव्यमे जीवत्वगुण नही है, उन्हें अचेतन कहते और जीवको सचेतन कहते हैं ।
१२५ सुख-दुःखका वेदन, हितमे प्रवृत्ति, अहित से भीति- ये तीनो कालमे जिसको नही है सर्वज्ञ महामुनि 'अजीव' कहते है ।
१.२६ संस्थान, सघात, वर्णं, रस, स्पर्श, गृध और शब्द, इस तरह पुद्गलद्रव्यसे उत्पन्न होनेव अनेक गुणपर्याय है ।
१२७. अरम, अरूप, अगध, अशब्द, अनिर्दिष्ट संस्थान और वचन अगोचर ऐसा जिनका चैन गुण है वह 'जीव' है ।
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१२८ जो निश्चयसे संसारस्थित जीव है, उसका अशुद्ध, परिणाम होता है । उस परिणामसे उत्पन्न होता है, उससे शुभ और अशुभ गति होती है ।,
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