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३० वॉ वर्ष
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_१५६ जो परद्रव्यमे शुभ अथवा अशुभ राग करता है वह जीव 'स्वचारित्र' से भ्रष्ट है और 'परचारित्र' का आचरण करता है, ऐसा समझें ।
१५७ जिस भावसे आत्माको पुण्य अथवा पाप-आस्रवकी प्राप्ति होती है, उसमे प्रवृत्ति करनेवाला आत्मा परचारिका आचरण करता है, इस प्रकार वीतराग सर्वज्ञने कहा है ।
१५८ जो सर्वं सगसे मुक्त होकर अनन्यमयतासे आत्मस्वभावमे स्थित है, निर्मल ज्ञाता द्रष्टा है, वह 'स्वचारित्र' का आचरण करनेवाला जीव है ।
१५९ परद्रव्यमे अहभावरहित, निर्विकल्प ज्ञानदर्शनमय परिणामी आत्मा है वह स्वचारित्राचरण है।
१६०. धर्मास्तिकायादिके स्वरूपकी प्रतीति 'सम्यक्त्व' है, बारह अग और चौदह पूर्वका जानना 'ज्ञान' है, और तपश्चर्यादिमे प्रवृत्ति करना 'व्यवहार- मोक्षमार्ग' है ।
१६१. उन तीनसे समाहित आत्मा, जहाँ आत्माके सिवाय अन्य किचित् मात्र नही करता, मात्र अन्य आत्मामय है वहाँ सर्वज्ञ वीतरागने 'निश्चय - मोक्षमार्ग' कहा है ।
१६२ जो आत्मा आत्मस्वभावमय ज्ञानदशनका अनन्यमयतासे आचरण करता है, उसे वह निश्चय ज्ञान, दर्शन और चारित्र है ।
१६३ जो यह सब जानेगा और देखेगा वह अव्याबाध सुखका अनुभव करेगा । इन भावोकी प्रतीति भव्यको होती है, अभव्यको नही होती ।
१६४ दर्शन, ज्ञान और चारित्र यह 'मोक्षमार्ग' है, इसके सेवनसे 'मोक्ष' प्राप्त होता है और ( अमुक हेतुसे ) 'बंध' होता है ऐसा मुनियोने कहा है ।
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१६६ अर्हत, सिद्ध, चैत्य, प्रवचन, मुनिगण और ज्ञानकी भक्तिसे परिपूर्ण आत्मा बहुत पुण्यका उपार्जन करता है, किन्तु वह कर्मक्षय नही करता ।
१६७ जिसके हृदयमे अणुमात्र भी परद्रव्यके प्रति राग है, वह सभी आगमोका ज्ञाता हो तो भी 'स्वसमय' को नही जानता, ऐसा समझें ।
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१६९. इसलिये जो सर्व इच्छासे निवृत्त होकर नि.सग और निर्ममत्व होकर सिद्धस्वरूपकी भक्ति करता है वह निर्वाणको प्राप्त होता है ।
१७० जिसे परमेष्ठीपदमे तत्त्वार्थप्रतीति पूर्वक भक्ति है, और निग्रंथ प्रवचनमे रुचिपूर्वक जिसकी बुद्धि परिणत हुई है और जो सयमतपसहित है, उसके लिये मोक्ष बिलकुल दूर नही है ।
१७१ अर्हत, सिद्ध, चैत्य और प्रवचनकी भक्तिपूर्वक यदि जीव तपश्चर्या करता है, तो वह अवश्य ही देवलोकको अगीकार करता है ।
१७२ इसलिये इच्छामात्रकी निवृत्ति करे, सर्वत्र किंचित्मात्र भी राग न करे, क्योकि वीतराग ही भवसागरको तर जाता है ।
१७३ मैने प्रवचनकी भक्तिसे प्रेरित होकर मार्गकी प्रभावनाके लिये प्रवचन के रहस्यभूत 'पचास्तिकाय' के सग्रहरूप इस शास्त्रको कहा है ।
इति पचास्तिकायसमाप्तम् ।