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श्रीमद राजचन्द्र
की प्रतिकूलताके कारण वह पति प्रसन्न होता ही नही है, और उस स्त्रीको मात्र अपने शरीरमे क्षुधा आदि कष्टोकी प्राप्ति होती है । इसी तरह किसी मुमुक्षुकी वृत्ति भगवानको पतिरूपसे प्राप्त करनेकी हो तो वह भगवान के स्वरूपानुसार वृत्ति न करे और अन्य स्वरूपमे रुचिमान होते हुए अनेक प्रकारका तप करके कष्टका सेवन करे, तो भी वह भगवानको नही पाता, क्योकि जैसे पति-पत्नीका सच्चा मिलाप, और सच्ची प्रसन्नता धातुके एकत्वमे है वैसे हे सखी । भगवान मे पतिभावको इस वृत्तिको स्थापन करके उसे यदि अचल रखना हो तो उस भगवानके साथ धातुमिलाप करना ही योग्य है, अर्थात् वे भगवान जिस शुद्धचैतन्यधातुरूपसे परिणमित हुए हैं वैसी शुद्धचेतन्यवृत्ति करनेसे ही उस धातुमेसे प्रतिकूल स्वभाव निवृत्त होनेसे ऐक्य होना संभव है, और उसी धातुमिलापसे उस भगवानरूप पतिकी प्राप्तिका किसी भी समय वियोग नही होगा ||४||
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हे सखी । कोई फिर ऐसा कहता है कि यह जगत ऐसे भगवानकी लीला है कि जिसके स्वरूपको पहचाननेका लक्ष्य नही हो सकता, और वह अलक्ष्य भगवान सबकी इच्छा पूर्ण करता है, इसलिये वह यो समझकर इस जगतको भगवानकी लीला मानकर, उस भगवानको उस स्वरूपसे महिमा गानेमे ही अपनी इच्छा पूर्ण होगी, (अर्थात् भगवान प्रसन्न होकर उसमे लग्नता करेगा) ऐसा मानता है, परंतु यह मिथ्या है, क्योकि वह भगवानके स्वरूपके अज्ञानसे ऐसा कहता है ।
जो भगवान अनंत ज्ञानदर्शनमय सर्वोत्कृष्ट सुखसमाधिमय है, वह भगवान इस जगतका कर्त्ता कैसे हो सकता है ? और लीलाके लिये प्रवृत्ति केसे हो सकती है ? लीलाकी प्रवृत्ति तो सदोषमे ही सभव है । जो पूर्ण होता है वह कुछ इच्छा ही नही करता । भगवान तो अनत अव्याबाध सुखसे पूर्ण है, उसमे अन्य कल्पनाका अवकाश कहाँसे हो ? लीलाको उत्पत्ति कुतूहलवृत्तिसे होती है । वैसी कुतूहलवृत्ति तो ज्ञान-सुखकी अपरिपूर्णतासे ही होती है । भगवानमे तो वे दोनो (ज्ञान और सुख) परिपूर्ण है, इसलिये उसकी प्रवृत्ति जगतको रचनेरूप लीलामे हो ही नही सकती । यह लीला तो दोषका विलास है और सरागीको हो उसका सभव है। जो सरागी होता है वह द्वेषसहित होता है, और जिसे ये दोनो होते है, उसे क्रोध, मान, माया, लोभ आदि सभी दोषोका होना सभव है । इसलिये यथार्थ दृष्टिसे देखते हुए तो लीला दोषका ही विलास है, और ऐसे दोषविलासकी इच्छा तो अज्ञानीको ही होती है । विचारवान मुमुक्षु भी ऐसे दोषविलासकी इच्छा नही करते, तो अनत ज्ञानमय भगवान उसकी इच्छा क्यो करेगे ? इसलिये जो उस भगवानके स्वरूपको लीलाके कर्तृत्वभावसे समझता है, वह भ्राति है, और उस भ्रातिका अनुसरण करके भगवानको प्रसन्न करनेका जो मार्ग वह अपनाता है वह भी भ्रातिमय ही है, जिससे भगवानरूप पतिको उसे प्राप्ति नही होती ||५||
हे सखी । पतिको प्रसन्न करनेके तो कई प्रकार हैं । अनेक प्रकारके शब्द, स्पर्श आदिके भोगसे पतिकी सेवा की जाती है । ऐसे अनेक प्रकार हैं, परतु इन सबमे चित्तप्रसन्नता ही सबसे उत्तम सेवा है, और वह ऐसी सेवा है जो कभी खडित नही होती । कपटरहित होकर आत्मार्पण करके पतिकी सेवा करने से अत्यंत आनदके समूहकी प्राप्तिका भाग्योदय होता है ।
भगवानरूप पतिकी सेवाके अनेक प्रकार है । द्रव्यपूजा, भावपूजा और आज्ञापूजा । द्रव्यपूजाके भी अनेक भेद हैं, परंतु उनमे सर्वोत्कृष्ट पूजा तो चित्त प्रसन्नता अर्थात् उस भगवानमे चैतन्यवृत्तिका परम हर्षसे एकत्वको प्राप्त करना ही है, इसीमे सब साधन समा जाते है । यहो अखंडित पूजा है, क्योकि यदि चित्त भगवानमे लीन हो तो दूसरे योग भी चित्ताधीन होनेसे भगवानके अधीन ही हैं, और चित्तकी लीनता भगवानमेसे दूर न हो तो ही जगतके भावोमे उदासीनता रहती है और उनमे ग्रहण-त्यागरूप विकल्पकी प्रवृत्ति नही होती, जिससे वह सेवा अखंड ही रहती है ।