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२८ वा वर्ष
'समयसार'मेसे जो काव्य लिखा है, उसके लिये तथा दूसरे सिद्धातोंके लिये समागममे समाधान करना सुगम होगा। . ज्ञानीपुरुपको आत्मप्रतिवधरूपसे ससारसेवा नही होती परतु प्रारब्धप्रतिवधरूपसे होती है। ऐसा होने पर भी उससे निवृत्तिरूप परिणामको प्राप्त करे, ऐसो ज्ञानीको रीति होती है, जिस रीतिका आश्रय करते हुए आज तीन वर्षोसे विशेषत वैसा किया है और उसमे अवश्य आत्मदशाको भुलाने जैसा सम्भव रहे, वैसे उदयको भी यथाशक्ति समपरिणामसे सहन किया है। यद्यपि उस सहन करनेके कालमे सर्वसगनिवृत्ति किसी तरह हो तो अच्छा, ऐमा सूझता रहा है; तो भी सर्वसगनिवृत्तिमे जो दशा रहनी चाहिये वह दशा उदयमे रहे तो अल्पकालमे विशेष कर्मकी निवृत्ति हो, ऐसा समझकर यथाशक्य उस प्रकारसे किया है। परतु अब मनमे ऐसा रहा करता है कि इस प्रसंगसे अर्थात् सकल गृहवाससे दूर न हुआ जा सके तो भी व्यापारादि प्रसगसे निवृत्त, दूर हुआ जाये तो अच्छा । क्योकि आत्मभावमे परिणत होनेके लिये जो दशा ज्ञानीकी होनी चाहिये वह दशा इस व्यापार-व्यवहारसे मुमुक्षुजीवको दिखायी नही देती। यह प्रकार जो लिखा है उस विषयमे अब कभी कभी विशेष विचारका उदय होता है। उसका जो परिणाम आये सो ठीक | यह प्रसग लिखा है, उसे अभी लोगोमे प्रगट होने देना योग्य नही है । माघ सुदी दूजको उस तरफ आनेकी सम्भावना रहती है। यही विनती ।
आ० स्वा० प्रणाम ।
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५६१ बंबई, माघ सुदी २, रवि, १९५१ शुभेच्छासम्पन्न भाई कुंवरजी आणंदजोके प्रति, श्री भावनगर ।
चित्तमे कुछ भी विचारवृत्ति परिणत हुई है, यह जानकर हृदयमे आनद हुआ है।
असार और क्लेशरूप आरंभ-परिग्रहके कार्यमे रहते हुए यदि यह जीव कुछ भी निर्भय या अजागृत रहे तो बहुत वर्षोंका उपासित वैराग्य भी निष्फल जाये ऐसी दशा हो जाती है, ऐसे निश्चयको नित्यप्रति यादकर निरुपाय प्रसगमे काँपते हुए चित्तसे विवशतासे ही प्रवृत्ति करना योग्य है, इस बातका, मुमुक्षुजीव द्वारा कार्य-कार्यमे, क्षण-क्षणमे और प्रसग-प्रसगमें ध्यान रखे विना मुमुक्षुता रहनी दुष्कर है, और ऐसी दशाका वेदन किये विना मुमुक्षुता भी सम्भव नहीं है । मेरे चित्तमे आजकल यह मुख्य विचार रहता है । यही विनती।
रायचदके प्रणाम ।
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बवई, माघ सुदी ३, सोम, १९५१ जिस प्रारब्धको भोगे बिना दूसरा कोई उपाय नही है, वह प्रारब्ध ज्ञानीको भी भोगना पडता है। ज्ञानी अत तक, आत्मार्थका त्याग करना नही चाहते, इतनी भिन्नता ज्ञानीमे होती है, ऐसा जो महापुरुषोंने कहा है वह सत्य है। .
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बबई, माघ सुदी ८, रवि, १९५१ पत्र प्राप्त हुआ है। विस्तारसे पत्र लिखना अभी शक्य नही है, जिसके लिये चित्तमे कुछ खेद होता है, तथापि प्रारब्धोदय समझकर समता रखता हूँ।
आपने पनमे जो कुछ लिखा है, उस पर वारवार विचार करनेसे, जागृति रखनेसे, जिनमे पचविषयादिके अशुचिस्वरूपका वर्णन किया हो ऐसे शास्त्रो तथा सत्पुरुषोके चरित्रोका विचार करनेसे ओर कार्य कार्यमे ध्यान रखकर प्रवृत्ति करनेसे जो कोई उदासभावना होनी योग्य है वह होगी। '
लि० रायचदके प्रणाम।